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अनन्तानुबंधी माया-बांस की जड़ के समान। अनन्तानुबंधी लोभ-कृमि रेशम के रंग के समान। अप्रत्याख्यानी क्रोध-भूमि के रेखा के समान। अप्रत्याख्यानी मान-अस्थि के स्तम्भ के समान। अप्रत्याख्यानी माया-मेढ़े के सींग के समान। अप्रत्याख्यानी लोभ-कीचड़ के रंग के समान। प्रत्याख्यानी क्रोध-बालू की रेखा के समान। प्रत्याख्यानी मान-काष्ठ के स्तम्भ के समान। प्रत्याख्यानी माया-चलते बैल की मूत्र की धारा के समान। प्रत्याख्यानी लोभ-गाड़ी के खंजन के समान। संज्वलन क्रोध-जल की रेखा के समान। संज्वलन मान-लता के स्तम्भ के समान। संज्वलन माया-छिले हुए बांस की छाल के समान।
संज्वलन लोभ-हल्दी के रंग के समान। 731. कषाय की कालावधि क्या है? उ. जो क्रोध पानी की रेखा के समान है, वह उसी दिन के प्रतिक्रमण से या
पाक्षिक प्रतिक्रमण से उपशान्त हो जाता है। जो चातुर्मासिक काल में उपशान्त होता है वह बालू की रेखा के समान है। जो सांवत्सरिक काल में उपशान्त होता है, वह भूमि की रेखा के समान है तथा जो पर्वत रेखा के
समान क्रोध है वह जीवनपर्यन्त नष्ट नहीं होता। 732. क्रोधी अधिक दोषी है या मानी? उ. मानी। क्रोध में मान वैकल्पिक है। मान में क्रोध की नियमा है। अत: क्रोधी
से मानी बहुतर दोषवाला है। 733. कषाय से किसकी हानि होती है? उ. चारित्र की। (कनकरस का दृष्टान्त) बृहत्कल्पभाष्य में कहा गया है
देशोन कोटि पूर्व तक की गई चारित्र की आराधना कषाय के उदय मात्र से
मुहूर्त भर में समाप्त हो जाती है। 734. क्या कषाय पुनर्जन्म का हेतू है? उ. हां, अनिगृहीत क्रोध और मान, प्रवर्धमान माया और लोभ-ये चारों
संक्लिष्ट कषाय पुनर्जन्म रूप वृक्ष की जड़ों का सिंचन करते हैं। 160 कर्म-दर्शन