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________________ भगवती सूत्र श. १ : उ. १ : सू. ३२-३८ 'आहार-पद' के प्रथम उद्देशक की भांति वक्तव्य है-भन्ते! क्या नरयिक-जीव आहार की इच्छा करते हैं? यहां से प्रारंभ कर यावत् वे गृहीत पुद्गलों को दुःख रूप में पुनः-पुनः परिणत करते हैं, यहां तक वक्तव्य है। आरम्भ-अनारम्भ-पद ३३. भन्ते! जीव क्या आत्मारम्भक हैं? परारम्भक हैं? उभयारम्भक हैं? अनारम्भक हैं? __गौतम! कुछ जीव आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं। कुछ जीव न आत्मारंभक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं। ३४. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-कुछ जीव आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं? कुछ जीव न आत्मारम्भक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं? गौतम! जीव दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-संसार-समापन्न और असंसार-समापन्न। जो असंसार-समापन्न हैं, वे सिद्ध हैं। सिद्ध न आत्मारम्भक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं। जो संसार-समापन्न जीव हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे–संयत और असंयत। जो संयत हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-प्रमत्त-संयत और अप्रमत्त-संयत। जो अप्रमत्त-संयत हैं, वे न आत्मारम्भक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं। जो प्रमत-संयत हैं, वे शुभयोग की अपेक्षा न आत्मारम्भक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं। अशुभ योग की अपेक्षा वे आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं। जो असंयत हैं, वे अविरति की अपेक्षा आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कुछ जीव आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं। कुछ जीव न आत्मारम्भक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं। ३५. भंते! नैरयिक-जीव क्या आत्मारंभक हैं? परारंभक हैं? उभयारंभक हैं? अनारंभक हैं? गौतम! नैरयिक-जीव आत्मारंभक भी हैं, परारंभक भी हैं, अभयारंभक भी हैं, अनारंभक नहीं हैं। ३६. यह किस अपेक्षा से है? गौतम! अविरति की अपेक्षा से। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-नैरयिक जीव आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं। ३७. इस प्रकार यावत् पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। मनुष्य 'जीव' की भांति वक्तव्य हैं। केवल इतना अन्तर है कि मनुष्य के प्रकरण में सिद्ध (असंसार-समापन्न) का सूत्र वक्तव्य नहीं है। वानमंतर-, ज्योतिष्क- और वैमानिक-देव नैरयिक की भांति वक्तव्य ३८. लेश्या-युक्त जीव सामान्य जीव की भांति वक्तव्य हैं। कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या और कापोत-लेश्या से युक्त जीव सामान्य जीव की भांति वक्तव्य हैं। केवल इतना अन्तर
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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