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भगवती सूत्र
श. ११ : उ. १२ : सू. १९५-१९९ उस पुद्गल परिव्राजक ने आलभिका नगरी के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां शंखवन चैत्य था, जहां भगवान महावीर थे, वहां आया, आकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार वन्दन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर न अति निकट और न अति दूर शुश्रूषा
और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धांजलि होकर पर्युपासना करने लगा। १६६. श्रमण भगवान महावीर ने पुद्गल परिव्राजक को उस विशालतम परिषद् में धर्म कहा
यावत् आज्ञा का आराधक होता है। १६७. पुद्गल परिव्राजक श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म सुनकर, अवधारण कर स्कंदक की भांति यावत् उत्तर पूर्व दिशा में गया, जाकर त्रिदण्ड, कमंडलु यावत् गैरिक वस्त्रों को एकांत में डाल दिया, डाल कर स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया, लोच कर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार जैसे ऋषभदत्त प्रव्रजित हुआ, वैसे ही पुद्गल परिव्राजक प्रव्रजित हो गया, उसी प्रकार ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, उसी प्रकार सर्व यावत् सब दुःखों को प्रक्षीण कर दिया। १६८. भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को 'भंते!' ऐसा कहकर वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-भंते! सिद्ध होने वाले जीव किस संहनन में सिद्ध होते
गौतम! वज्रऋषभ-नाराच-संहनन में सिद्ध होते हैं। इसी प्रकार उववाई (सू. १८५-१९५) की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार संहनन, संस्थान, उच्चत्व, आयुष्य और परिवसन, इसी प्रकार सिद्धिकंडिका तक निरवशेष वक्तव्य है, यावत् सिद्ध अव्याबाध शाश्वत सुख का
अनुभव करते हैं। १६६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
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