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________________ भगवती सूत्र श. ११ : उ. ११ : सू. १३३,१३४ पुष्ट, सुश्लिष्ट, विशिष्ट और तीक्ष्ण दाढा से मुक्त मुंह को खोले हुए था। उसके ओष्ठ परिकर्मित, जातिवान्, कमल के समान कोमल, प्रमाण- युक्त और अत्यंत शोभनीय थे । उसकी जिह्वा और तालु रक्त कमल - पत्र के समान मृदु और सुकुमाल थे। उसके नयन मूसा (स्वर्ण' आदि को गलाने का पात्र) में रहे हुए, अग्नि में तपाये हुए, आवर्त करते हुए उत्तम स्वर्ण के सदृश रंग वाले और विद्युत् के समान विमल थे। उसकी जंघा विशाल और पुष्ट थी । उसके स्कंध प्रतिपूर्ण और विपुल थे । वह मृदु, विशद, सूक्ष्म, विस्तीर्ण और प्रशस्त लक्षणयुक्त अयाल की सटा से सुशोभित था । वह ऊपर की ओर उठी हुई सुनिर्मित पूंछ से भूमि को आस्फालित कर रहा था। सौम्य, सौम्य आकार वाले, लीला करते हुए, जंभाई लेते हुए, आकाश-पथ से उतर कर अपने मुख में प्रविष्ट होते हुए सिंह के स्वप्न को देखकर जागृत हो गई। जागृत होकर वह हृष्ट-तुष्ट चित्त वाली, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाली, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाली हो गई । मेघ की धारा से आहत कदंब पुष्प की भांति रोम कूप उच्च्छूसित हो गए। उसने उस स्वप्न का अवग्रहण किया, अवग्रहण कर शयनीय से उठी । उठकर वह अत्वरित, अचपल, असंभ्रांत, अविलंबित राजहंसिनी जैसी गति से जहां बल राजा का शयनीय था, वहां आई, वहां आकर इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय श्री - संपन्न, मृदु, मधुर और मंजुल भाषा में पुनः पुनः संलाप करती हुई राजा बल को जगाया, जगाकर बल राजा की अनुज्ञा से नाना मणि रत्न की भांतों से चित्रित भद्रासन पर बैठ गई । आश्वस्त, विश्वस्त हो, प्रवर सुखासन पर बैठकर राजा बल को इष्ट, कांत यावत् मृदु-मधुर और मंजुल भाषा में पुनः पुनः संलाप करती हुई इस प्रकार बोली- देवानुप्रिय ! मैं आज शरीर - प्रमाण उपधान वाले विशिष्ट शयनीय पर पूर्ववत् यावत् अपने मुख में प्रविष्ट होते हुए सिंह के स्वप्न को देखकर जागृत हो गई। देवानुप्रिय ! क्या मैं मानूं ? इस उदार यावत् महास्वप्न का कल्याणकारी विशिष्ट फल होगा ? १३४. देवी प्रभावती के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर राजा बल हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाला, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। उसका शरीर मेघधारा से आहत कदंब के सुरभिकुसुम की भांति पुलकित एवं उच्छूसित रोमकूप वाला हो गया। उसने स्वप्न को अवग्रहण किया। अवग्रहण कर ईहा में प्रवेश किया। ईहा में प्रवेश कर अपने स्वाभाविक मतिपूर्वक बुद्धि-विज्ञान के द्वारा उस स्वप्न के अर्थ का अवग्रहण किया । अर्थ का अवग्रहण कर प्रभावती देवी से इष्ट, कांत यावत् मंगल, मृदृ, मधुर, श्री संपन्न शब्दों के द्वारा पुनः पुनः संलाप करता हुआ इस प्रका बोला- देवी! तुमने उदार स्वप्न देखा है। देवी ! तुमने कल्याणकारी स्वप्न देखा है । यावत् देवी! तुमने श्री संपन्न स्वप्न देखा है। देवी ! तुमने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगलकारी स्वप्न देखा है । देवानुप्रिये ! तुम्हें अर्थ-लाभ होगा। देवानुप्रिये ! तुम्हें भोग-लाभ होगा । देवानुप्रिये ! तुम्हें पुत्र लाभ होगा। देवानुप्रिये ! तुम्हें राज्य - लाभ होगा। इस प्रकार देवानुप्रिये! तुम बहु प्रतिपूर्ण नौ मास और साढे सात दिन-रात व्यतिक्रांत होने पर एक बालक को जन्म दोगी। वह बालक हमारे कुल की पताका, कुलदीप, कुल-पर्वत, कुल-अवतंस, कुल - तिलक, कुल-कीर्तिकर, कुल को आनंदित करने वाला, कुल के यश को बढ़ाने वाला, कुल का आधार, कुल-पादप, कुल को बढाने वाला, सुकुमाल हाथ-पैर वाला, अक्षीण और ४२६
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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