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भगवती सूत्र
श. ९ : उ. ३३ : सू. २२६-२३०
२२६. श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमालि अनगार के इस अर्थ को विनयपूर्वक स्वीकार किया । स्वीकार कर जमालि अनगार का शय्या संस्तारक बिछाने लगे।
२२७. प्रबलतर वेदना से अभिभूत जमालि अनगार ने दूसरी बार भी श्रमण-निर्ग्रथों को संबोधित कर इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! क्या मेरा शय्या संस्तारक बिछा दिया ? अथवा बिछा रहे हैं ?
वे श्रमण निर्ग्रथ जमालि अनगार से इस प्रकार बोले- देवानुप्रिय ! शय्या - संस्तारक अभी बिछाया नहीं, बिछा रहे हैं ।
२२८. जमालि अनगार मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - जो श्रमण भगवान महावीर इस प्रकार आख्यान करते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं - चलमान चलित, उदीर्यमाण उदीरित, वेद्यमान वेदित, प्रहीणमान प्रहीण, छिद्यमान छिन्न, भिद्यमान भिन्न दह्यमान दग्ध, म्रियमाण मृत, निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण होता है - वह मिथ्या है। यह प्रत्यक्ष ही दिखाई देता है - शय्या संस्तारक क्रियमाण अकृत है, संस्तीर्यमाण असंस्तृत है। जिस हेतु से शय्या - संस्तारक क्रियमाण अकृत है, संस्तीर्यमाण असंस्तृत है, उसी हेतु से चलमान भी अचलित यावत् निर्जीर्यमाण भी अनिर्जीर्ण है-इस प्रकार संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर श्रमण-निर्ग्रथों को संबोधित किया, संबोधित कर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान महावीर जो इस प्रकार आख्यान करते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं-चलमान चलित यावत् निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण है, वह मिथ्या है। यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है - शय्या - संस्तारक क्रियमाण अकृत है, संस्तीर्यमाण असंस्तृत है । जिस हेतु से शय्या- संस्तारक क्रियमाण अकृत है, संस्तीर्यमाण असंस्तृत है, उसी हेतु से चलमान भी अचलित है यावत् निर्जीर्यमार्ण भी अनिर्जीर्ण है।
२२९. जमालि अनगार के इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करने पर कुछ श्रमण-निर्ग्रन्थों ने इस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि की, कुछ श्रमण-निर्ग्रन्थों ने इस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की। जिन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमालि अनगार के इस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि की, वे जमालि अनगार को ही उपसंपन्न कर विहार करने लगे। जिन श्रमणनिर्ग्रन्थों ने जमालि अनगार के इस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की, उन्होंने जमालि अनगार के पास से कोष्ठक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर क्रमानुसार विचरण और ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए जहां चंपा नगरी थी, जहां पूर्णभद्र चैत्य था, जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आए। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर श्रमण भगवान् महावीर को उपसंपन्न कर विहार करने लगे ।
२३०. जमालि अनगार किसी समय उस रोग आतंक से विप्रमुक्त होकर हृष्ट हो गया। नीरोग और शरीर से बलवान होकर श्रावस्ती नगरी से कोष्ठक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर क्रमानुसार विचरण और ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए जहां चंपा नगरी थी, जहां पूर्णभद्र चैत्य था, जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आया। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर के न अति दूर न अति निकट स्थित होकर श्रमण भगवान महावीर से इस
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