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( XLIII)
है-"भगवन्! आपकी सर्वज्ञता को सिद्ध करने के लिए मुझे बहुत प्रमाण प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है। आपके द्वारा प्रतिपादित षड्जीवनिकायवाद आपके सर्वज्ञत्व का प्रबलतम साक्ष्य है।"
"प्रस्तुत विषय की चर्चा एक उदाहरण के रूप में की गई है। इसका प्रयोजन इस तथ्य की ओर इंगित करना है कि इस आगम में ऐसे सैकड़ों विषय प्रतिपादित हैं, जो सामान्य बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं हैं; उनमें से कुछ विषय विज्ञान की नई शोधों द्वारा अब ग्राह्य हो चुके हैं तथा अनेक विषयों को परीक्षण के लिए पूर्व मान्यता (hypothesis) के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।"
"सूक्ष्म जीवों की गतिविधियों के प्रत्यक्षतः प्रमाणित होने पर केवल जीव-शास्त्रीय सिद्धांतों का ही विकास नहीं होता, किन्तु अहिंसा के सिद्धांत को समझने का अवसर मिलता है और साथ-साथ सूक्ष्म जीवों के प्रति किए जाने वाले व्यवहार की समीक्षा का भी।"३
प्रस्तुत आगम में प्रतिपादित जीव-अजीव, पांच अस्तिकाय आदि के प्रतिपादन को मौलिक मानते हुए पाश्चात्य विद्वान् डॉ. वाल्टर शुबिंग ने लिखा है
"जीव-अजीव और पञ्चास्तिकाय का सिद्धान्त महावीर की देन है। यह उत्तरकालीन विकास नहीं है।"
"प्रस्तुत आगम में जीव और पुद्गल का इतना विशद निरूपण है जितना अन्य प्राचीन धर्मग्रंथों या दर्शनग्रंथों में सुलभ नहीं है।''
"प्रस्तुत आगम का बड़ा भाग क्रियावाद के निरूपण से व्याप्त है। क्रियावाद की व्यवस्था तत्त्व-दर्शन के आधार पर हुई है, इसलिए उसमें अस्तिकायवाद और नवतत्त्ववाद दोनों परस्पर एक दूसरे के पूरक के रूप में व्याख्यात हुए हैं। ___"भगवान् महावीर ने पांच अस्तिकायों का प्रतिपादन किया। वे पंचास्तिकाय कहलाते हैं। उनमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीनों अमूर्त होने के कारण अदृश्य हैं। जीवास्तिकाय अमूर्त होने के कारण दृश्य नहीं है, फिर भी शरीर के माध्यम से प्रकट होने वाली चैतन्य-क्रिया के द्वारा वह दृश्य है। पुद्गलास्तिकाय (परमाणु और १. द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, श्लोक १/१३- ३. अंगसुत्ताणि (भाग २), भूमिका, पृ. य एव षड्जीवनिकायविस्तरः,
२४॥ परैरनालीढपथस्त्वयोदितः।
४. The Doctrines of the Jainas, p. अनेन सर्वज्ञपरीक्षणक्षमास्
126. (भगवई (भाष्य), खण्ड १, त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः।
भूमिका, पृ. १९ पर उद्धृत।) २. भगवई (भाष्य), खण्ड १, भूमिका, पृ. ५. भगवई (भाष्य), खण्ड १, भूमिका,
पृ. १९।
१७।