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श. ९ : उ. ३३ : सू. २०४-२०८
भगवती सूत्र पादपीठ और अपनी दोनों पादुकाओं से समायुक्त प्रवर सिंहासन, बहुत किंकर, कर्मकर, पुरुष पदाति से परिक्षिप्त होकर आगे-आगे यथानुपूर्वी प्रस्थान कर रहे थे। उसके पश्चात् बहुत यष्टि, माला, चामर (बंधन-रज्जु अथवा चाबुक), धनुष्य, पुस्तक, फलक, पीठ, वीणा, स्नेह-पात्र और सिक्कों का पात्र लिए हुए आगे-आगे यथानुपूर्वी प्रस्थान कर रहे थे। उसके बाद बहुत दंडी, मुंडी, शिखंडी, जटी, पिच्छी, हास्यकर, शोर करने वाले, परिहास करने वाले, चाटुकर, काम-प्रधान क्रीड़ा करने वाले, भांड, खेल तमाशा करने वाले ये वाद्य बजाते हुए, गाते, हंसते, नाचते, बोलते, सिखाते और भविष्य में होने वाली घटना को सुनाते हुए, रक्षा करते हुए, पृष्ठगामी राजा की ओर निहारते हुए, 'जय-जय' शब्द का प्रयोग करते हुए यथानुपूर्वी आगे-आगे प्रस्थान कर रहे थे। उसके पश्चात् बहुत उग्र, भोज, क्षत्रिय, इक्ष्वाकु, नाग, कौरव, (उववाई, सूत्र ५२) की भांति वक्तव्य है यावत् महान् पुरुष-वर्ग से परिक्षिप्त क्षत्रियकुमार जमालि के आगे, पीछे और पार्श्व में यथानुपूर्वी प्रस्थान कर रहे थे। २०५. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया। सर्व अलंकारों से विभूषित होकर हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुए। कटसरैया की माला, दाम तथा छत्र को धारण करते हुए, प्रवर श्वेत चामरों का वीजन लेते हुए, हय, गज, रथ और पदातिक-प्रवर यौद्धा से कलित चातुरंगिणी सेना संपरिवृत, महान् सुभटों के विस्तृत वृंद से परिक्षिप्त होकर क्षत्रियकुमार जमालि के पृष्ठभाग में रहकर अनुगमन कर रहे
थे। २०६. उस क्षत्रिय कुमार जमालि के आगे महान् घोड़े और घुड़सवार, दोनों पार्श्व में हाथी और
महावत, पीछे रथ और रथ-समूह चल रहे थे। २०७. क्षत्रियकुमार जमालि के आगे जल से भरी झारी लिए हुए, तालत लिए हुए, श्वेत छत्र तानते हुए, श्वेत चामर और बाल वीजनी को डुलाते हुए, सर्व ऋद्धि यावत् दुन्दुभि के निर्घोष से नादित शब्द करते हुए क्षत्रियकुंडग्राम नगर के बीचों-बीच जहां ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर है, जहां बहुशालक चैत्य है, जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं वहां जाने के लिए उद्यत हुए। २०८. क्षत्रियकुमार जमालि का क्षत्रिय-कुण्डग्राम नगर के बीचोबीच निष्क्रमण करते हुए
शृंगाकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुत धनार्थी, कामार्थी, भोगार्थी, लाभार्थी, किल्विषिक (विदूषक), कापालिक, कर-पीड़ित अथवा सेवा में व्याप्त, शंख बजाने वाले, चक्रधारी, कृषक, मंगल-पाठक, विशिष्ट प्रकार का नृत्य करने वाले, घोषणा करने वाले, छात्रगण, उन इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, मनोभिराम, हृदय का स्पर्श करने वाली वाणी और जय-विजय-सूचक मंगल शब्दों के द्वारा अनवरत अभिनंदन और अभिस्तवन करते हुए इस प्रकार बोलेहे नंद-समृद्ध पुरुष! तुम्हारी जय हो, विजय हो धर्म के द्वारा। हे नंद पुरुष! तुम्हारी जय हो, विजय हो तप के द्वारा।
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