________________
भगवती सूत्र
श. ९ : उ. ३३ : सू. १७७-१८० करने में समर्थ नहीं हुए तब विषय से विरक्त किन्तु संयम के विषय में भय दिखाकर उद्वेग पैदा करने वाले प्रज्ञापन के द्वारा प्रज्ञापना करते हुए इस प्रकार बोले-जात! यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य, अनुत्तर, अद्वितीय, प्रतिपूर्ण, नैर्यात्रिक, मोक्ष तक पहुंचाने वाला, संशुद्ध, शल्य को काटने वाला, सिद्धि का मार्ग, मुक्ति का मार्ग, मोक्ष का मार्ग, शांति का मार्ग, अवितथ, अविच्छिन्न और समस्त दुःखों के क्षय का मार्ग है। इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में स्थित जीव सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों का अन्त करते हैं। संयम सांप की भांति एकान्त (एकाग्र) दृष्टि द्वारा साध्य है। क्षर की भांति एकान्त धार द्वारा साध्य है। इसमें लोह के यव चबाने होते हैं। यह बालू के कौर की तरह निःस्वाद है। यह महानदी गंगा में प्रतिस्रोत-गमन जैसा है, यह महासमुद्र को भुजाओं से तैरने जैसा दुस्तर है। यह तीक्ष्ण कांटों पर चंक्रमण करने, भारी-भरकम वस्तु को उठाने और तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने जैसा है। जात! श्रमण निर्ग्रन्थ आधाकर्मी, औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवतर, पूति, क्रीत, प्रामित्य-उधार लिया गया, आछेद्य-छीना गया, भागीदार द्वारा अननुमत, सामने लाया गया, कान्तार-भक्त, दुर्भिक्ष-भक्त, ग्लान-भक्त, वादलिका-भक्त, प्राभृतिक-भक्त, शय्यातर-पिण्ड, राजपिंड, मूल-भोजन, कन्द-भोजन, फल-भोजन, बीज-भोजन और हरित-भोजन खा-पी नहीं सकता। जात! तुम सुख भोगने योग्य हो, दुःख भोगने योग्य नहीं हो। तुम सर्दी, गर्मी, भूख और प्यास तथा कीट, हिंस्र पशु, दंश-मशक, वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक और सान्निपातिक, विविध प्रकार के रोग और आतंक तथा उदीर्ण परीषह और उपसर्ग को सहन करने में समर्थ नहीं हो। जात! हम क्षण भर के लिए भी तुम्हारा वियोग सहना नहीं चाहते, इसलिए तुम तब तक रहो, जब तक हम जीवित हैं। उसके पश्चात् हम कालगत हो जाएं, तुम्हारी वय परिपक्व हो जाए, तुम कुल-वंश के तंतु-कार्य से निरपेक्ष होकर श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड
हो. अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाना। १७८. क्षत्रियकुमार जमालि ने माता-पिता से इस प्रकार कहा-माता-पिता! यह वैसा ही है, जैसा आप कह रहे हैं-जात! यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य, अनुत्तर, अद्वितीय यावत् अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाना। माता-पिता ! क्लीब, कायर, कापुरुष, इहलोक से प्रतिबद्ध, परलोक से पराङ्मख, विषय की तृष्णा रखने वाले और प्राकृतजन-साधारण मनुष्य के लिए निग्रंथ-प्रवचन आचरण करना दुष्कर है। धीर, कृतनिश्चय और व्यवसाय- सम्पन्न (उपाय-प्रवृत्त) के लिए उसका आचरण किंचित् भी दुष्कर नहीं है। इसलिए माता-पिता! मैं चाहता हूं तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात होकर मैं
श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाऊं। १७९. क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता विषय के प्रति अनुरक्त बनाने वाले और विषय से विरक्त किन्तु संयम के विषय में भय दिखाकर उद्वेग पैदा करने वाले बहुत आख्यान, प्रज्ञापन, संज्ञापन और विज्ञापन के द्वारा उसे आख्यात, प्रज्ञप्त-संज्ञप्त और विज्ञप्त करने में समर्थ नहीं हुए तब क्षत्रियकुमार जमालि को अनिच्छापूर्वक निष्क्रमण की अनुज्ञा दे दी। १८०. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुला कर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! क्षत्रियकुंडग्राम नगर के भीतर और बाहर पानी का छिड़काव करो, झाड़,
३७३