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श. ९ : उ. ३३ : सू. १६६-१७०
भगवती सूत्र जो कि तुमने श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्म को सुना है, वह धर्म तुम्हें इष्ट, प्रतीप्सित
और अभिरुचित है। १६७. वह क्षत्रियकुमार जमालि माता-पिता से दूसरी बार इस प्रकार बोला-माता-पिता! मैंने
श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म सुना है, वह धर्म मुझे इष्ट, प्रतीप्सित और अभिरुचित है। माता-पिता! मैं संसार के भय से उद्विग्न और जन्म-मरण से भीत हूं। माता-पिता! मैं चाहता हूं-आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड होकर अगार से
अनगारिता में प्रव्रजित होऊं। १६८. क्षत्रियकुमार जमालि की उस अनिष्ट, अकांत, अप्रिय, अमनोज्ञ, अमनोहर और
अश्रुतपूर्व वाणी को सुनकर, अवधारण कर माता के रोमकूपों में स्वेद आ गया, उसके स्रवण से शरीर गीला हो गया। शोक के आघात से उसके अंग कांपने लगे। वह निस्तेज हो गई। उसका मुख दीन और विमनस्क हो गया। वह हाथ से मली हुई कमलमाला की भांति हो गई। उसका शरीर उसी क्षण म्लान, दुर्बल, लावण्य-शून्य, आभा-शून्य और श्री-विहीन हो गया। गहने शिथिल हो गए। धवल-कंगन धरती पर गिरकर मोच खाकर खण्ड-खण्ड हो गए। उत्तरीय खिसक गया। मूच्र्छावश चेतना के नष्ट होने पर शरीर भारी हो गया। सकोमल केशराशि बिखर गई। परशु से छिन्न चंपकलता की भांति और उत्सव से निवृत्त होने पर इन्द्र-यष्टि की भांति उसके संधि-बंधन शिथिल हो गए, वह अपने सम्पूर्ण शरीर के साथ रत्नजटित आंगन में धम से गिर पड़ी। १६९. संभ्रम और त्वरा के साथ चेटिका द्वारा डाली गई सोने की झारी के मुंह से निकली
शीतल जल की निर्मल धारा के परिसिंचन से क्षत्रियकुमार जमालि की माता की गात्र-यष्टि में शीतलता व्याप गई। उत्क्षेपक और तालवृत के पंखों से उठने वाली जलमिश्रित हवा के संस्पर्श से तथा अंतःपुर के परिजनों द्वारा वह आश्वस्त हुई। वह रोती, कलपती, आंसू बहाती, शोक करती और विलपती हुई क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार बोली-जात! तुम हमारे एकमात्र पुत्र इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत और आभरण-करण्डक के समान हो। तुम रत्न, रत्नभूत (चिन्तामणि आदि रत्न के समान) जीवन-उत्सव और हृदय को आनंदित करने वाले हो। तुम उदुम्बुर पुष्प के समान श्रवण-दुर्लभ हो फिर दर्शन का तो प्रश्न ही क्या? जात! हम क्षणभर भी तुम्हारा वियोग सहना नहीं चाहते, इसलिए जात! तुम तब तक रहो, जब तक हम जीवित हैं। उसके पश्चात् जब हम कालगत हो जाएं, तुम्हारी वय परिपक्व हो जाए, तुम संतान रूपी तंतु को बढ़ाने के कार्य से निरपेक्ष हो जाओ, तब श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाना। १७०. क्षत्रियकुमार जमालि माता-पिता से इस प्रकार बोला-माता-पिता! यह वैसा ही है जो तुम मुझे यह कह रहे हो-जात! तुम हमारे एक पुत्र, इष्ट, कांत यावत् प्रव्रजित हो जाना। माता-पिता! यह मनुष्य का भव अनेक जन्म, जरा, मरण, रोग, शारीरिक और मानसिक प्रकाम दुःखों के वेदन, सैकड़ों कष्टों और उपद्रवों से अभिभूत, अध्रुव, अनियत, अशाश्वत,
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