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(XLI ) विषयवस्तु निर्दिष्ट है, किन्तु उसमें समवायांग की भांति प्रश्नकर्ताओं का उल्लेख नहीं है । आश्चर्य है कि समवायांग में सबसे बड़े प्रश्नकार गौतम का उल्लेख नहीं है। आचार्य अकलंक के अनुसार प्रस्तुत आगम में जीव है या नहीं है - इस प्रकार के अनेक प्रश्न निरूपित हैं।' आचार्य वीरसेन के अनुसार प्रस्तुत आगम में प्रश्नोत्तरों के साथ-साथ ९६ हजार छिन्नच्छेद नयों, ज्ञापनीय शुभ और अशुभ का वर्णन है।
"उक्त सूचनाओं से प्रस्तुत आगम का महत्त्व जाना जा सकता है। वर्तमान ज्ञान की अनेक शाखाओं ने अनेक नए रहस्यों का उद्घाटन किया है। हम प्रस्तुत आगम की गहराइयों में जाते हैं तो हमें प्रतीत होता है कि इन रहस्यों का उद्घाटन अतीत में भी हो चुका था । प्रस्तुत आगम तत्त्वविद्या का आकर ग्रन्थ है। इसमें चेतन और अचेतन - इन दोनों तत्त्वों की विशद जानकारी उपलब्ध है । संभवतः विश्व विद्या की कोई भी ऐसी शाखा नहीं होगी जिसकी इसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में चर्चा न हो । तत्त्वविद्या का इतना विशाल ग्रंथ अभी तक ज्ञात नहीं है । इसके प्रतिपाद्य विषय का आकलन करना एक जटिल कार्य है।
प्रस्तुत आगम की विषय-सूची से ज्ञात होगा कि एक प्रकार से यह आगम एक विश्वकोश की भांति है। इसमें तत्त्वविद्या ( Metaphysics) से सम्बद्ध अनेक विषयों की चर्चा की गई है।
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उदाहरणार्थ- 'क्रियमाण कृत' का सिद्धान्त समझाया गया है । इस चर्चा का निष्कर्ष यह है कि “उत्पत्ति और विनाश की प्रक्रिया को समझने के लिए द्रव्य और पर्याय के संयुक्त रूप का स्वीकार आवश्यक है । केवल द्रव्य या केवल पर्याय के आधार पर उत्पत्ति या विनाश की व्याख्या नहीं की जा सकती।"" इससे ज्ञात होता है कि “जैन दर्शन में प्रत्येक तत्त्व का प्रतिपादन अनेकान्त की दृष्टि से होता है । एकान्त दृष्टि के अनुसार चलमान और चलित - दोनों एक क्षण में नहीं हो सकते । अनेकान्त की दृष्टि के अनुसार चलमान और चलित - दोनों एक क्षण में होते हैं। समूचे आगम में अनेकान्त - दृष्टि का पूरा उपयोग किया गया है ।"
"भगवान महावीर ने अपनी दीर्घ तपस्या से सूक्ष्म सत्यों का साक्षात्कार किया और तत्पश्चात् उनका प्रतिपादन किया । उनके द्वारा प्रणीत अनेक सिद्धान्त, जैसे - षड्जीवनिकाय, १. नन्दी, सू. ८५ । भगवई (भाष्य), खण्ड १, भूमिका, पृ.
५.
२.
तत्त्वार्थराजवर्तिक, १/२०१
१६।
भगवई, १ / ११, १२ ।
३.
जिस व्याख्यापद्धति में प्रत्येक श्लोक और सूत्र की स्वतंत्र, दूसरे श्लोकों और सूत्रों से निरपेक्ष व्याख्या की जाती है उस व्याख्या का नाम छिन्नच्छेद नय है ।
अधिकार, पृ.
४.
कसायपाहुड, प्रथम
१२५ ।
६.
७.
८.
भगवई (भाष्य), खण्ड १, १ / ११,१२ का भाष्य, पृ. २२ ।
वही, खण्ड १, भूमिका, पृ. १६ ।