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श. ९ : उ. ३१,३२ : सू. ७०-८१
भगवती सूत्र ७०. भंते! वह प्रव्रज्या देता है? मुंड करता है?
हां, प्रव्रज्या भी देता है, मुंड भी करता है। ७१. भंते! वह सिद्ध, बुद्ध यावत् सब दुःखों का अंत करता है? __ हां, वह सिद्ध होता है, यावत् सब दुःखों का अंत करता है। ७२. भंते! क्या उसके शिष्य सिद्ध होते हैं? यावत् सब दुःखों का अंत करते हैं?
हां, सिद्ध होते हैं, यावत् सब दुःखों का अंत करते हैं। ७३. भंते! क्या उसके प्रशिष्य सिद्ध होते हैं यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं?
हां, सिद्ध होते हैं यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं। ७४. भंते! क्या वह ऊर्ध्व देश में होता है?
जैसे असोच्चा की वक्तव्यता यावत् संहरण की अपेक्षा अढ़ाई द्वीप-समुद्र के एक देश भाग में होता है। ७५. भंते! श्रुत्वा-केवलज्ञानी एक समय में कितने होते हैं? गौतम! जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः एक सौ आठ। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुनकर केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता। ७६. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
बत्तीसवां उद्देशक पाश्र्वापत्यीय-गांगेय-प्रश्न-पद ७७. उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था–वर्णक। दूतिपलाशक चैत्य।
भगवान् महावीर आए। परिषद् ने नगर से निर्गमन किया। भगवान ने धर्म कहा। परिषद् वापस नगर में चली गई। ७८. उस काल और उस समय में पापित्यीय गांगेय नामक अनगार, जहां श्रमण भगवान्
महावीर हैं, वहां आते हैं, वहां आकर श्रमण भगवान महावीर के न अति दूर और न अति निकट स्थित होकर श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार बोलेसांतर-निरन्तर-उपपन्न-आदि-पद ७९. भंते! नैरयिक अंतर-सहित उपपन्न होते हैं? निरन्तर उपपन्न होते हैं?
गांगेय! नैरयिक अंतर-सहित भी उपपन्न होते हैं और निरन्तर भी उपपन्न होते हैं। ८०. भंते ! असुरकुमार अंतर-सहित उपपन्न होते हैं? निरंतर उपपन्न होते हैं? गांगेय! असुरकुमार अंतर-सहित भी उपपन्न होते हैं और निरन्तर भी उपपन्न होते हैं। इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता। ८१. भंते ! पृथ्वीकायिक अंतर-सहित उपपन्न होते हैं? निरंतर उपपन्न होते हैं?
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