________________
(XXXVII)
(३) नन्दी (४) अनुयोगद्वार।
(१) दशैवकालिक
(२) उत्तराध्ययन "छेद
(१) निशीथ (२) व्यवहार
(३) बृहत्कल्प (४) दशाश्रुतस्कन्ध
(११+१२+४+४%3D३१)
(३२) आवश्यक।
उपर्युक्त विभागों में स्वतः प्रमाण केवल ग्यारह अंग ही हैं। शेष सब परतः प्रमाण हैं।"
श्वेताम्बर-परम्परा के स्थानकवासी एवं तेरापंथ सम्प्रदाय में इन ३२ आगमों को प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जाता है। (४) अंग-आगम
“वर्तमान में उपलब्ध आगम-वाङ्मय में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान अंग-आगम-साहित्य का है।
"वैदिक और बौद्ध साहित्य में मुख्य ग्रन्थ वेद और पिटक हैं। उनके साथ 'अंग' शब्द का कोई योग नहीं है। जैन साहित्य में मुख्य ग्रन्थों का वर्गीकरण गणिपिटक है। उसके साथ 'अंग' शब्द का योग हुआ है। गणिपिटक के बारह अंग हैं-'दुवालसंगे गणिपिडगे।'
"जैन-परम्परा में श्रुत-पुरुष की कल्पना भी प्राप्त होती है। आचार आदि बारह आगम श्रुत-पुरुष के अंग-स्थानीय हैं। संभवतः इसीलिए उन्हें बारह अंग कहा गया। इस प्रकार द्वादशांग 'गणिपिटक' और 'श्रुत-पुरुष'-दोनों का विशेषण बनता है।"३
१. दसवेआलियं, भूमिका, पृ. XVII २. मूलाराधना, ४/५९९-विजयोदया : श्रुतं
पुरुषः मुखचरणाद्यङ्गस्थानीयत्वादङ्ग
शब्देनोच्यते। ३. अंगसुत्ताणि (भाग १), पृ. ३५,३६ ।