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भगवती सूत्र
श. ८ : उ. ४,५ : सू. २२८-२३३
चौथा उद्देशक क्रिया-पद २२८. राजगृह नगर में समवसरण यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते! क्रियाएं कितनी प्रज्ञप्त
गौतम! क्रियाएं पांच प्रज्ञप्त हैं, जैसे-कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपात-क्रिया इस प्रकार पण्णवणा का क्रिया-पद (पद २२) निरवशेष रूप में वक्तव्य है। यावत् मिथ्यादर्शन-प्रत्ययिकी क्रिया सबसे अल्प है। अप्रत्याख्यान-क्रिया उससे विशेषाधिक है। पारिग्रहिकी क्रिया उससे विशेषाधिक है। आरंभिकी क्रिया उससे विशेषाधिक है। मायाप्रत्ययिकी क्रिया उससे विशेषाधिक है। २२९. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
पांचवां उद्देशक
आजीवक के संदर्भ म श्रमणोपासक-पद २३०. राजगृह नगर में समवसरण यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते! आजीवकों ने भगवान
स्थविरों से इस प्रकार कहाभंते! कोई श्रमणोपासक श्रमणों के उपाश्रय में आसीन होकर सामायिक कर रहा है। उस समय कोई पुरुष उसके भाण्ड, वस्त्र आदि वस्तु का अपहरण कर लेता है, भंते! सामायिक पूर्ण होने के पश्चात् श्रमणोपासक उस भाण्ड की अनुगवेषणा कर रहा है तो क्या अपने भाण्ड की अनुगवेषणा कर रहा है अथवा पराए भाण्ड की अनुगवेषणा कर रहा है? गौतम! वह अपने भांड की अनुगवेषणा करता है, पराए भांड की अनुगवेषणा नहीं करता। २३१. भंते! श्रमणोपासक शीलव्रत, गुण-विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास की आराधना
करता है। क्या उसका भाण्ड अभाण्ड हो जाता है, पराया हो जाता है? हां, उसका भाण्ड अभाण्ड बन जाता है। २३२. भंते! यह कैसे कहा जा सकता है-श्रमणोपासक अपने भाण्ड की अनुगवेषणा करता है, पराए भाण्ड की अनुगवेषणा नहीं करता? गौतम! उसका ऐसा संकल्प होता है-हिरण्य मेरा नहीं है, सुवर्ण मेरा नहीं है, कांस्य मेरा नहीं है, दूष्य (वस्त्र) मेरा नहीं है, विपुल धन, सोना, रत्न, मणि, मोती, शंख, मैनसिन, प्रवाल, रक्त-रत्न आदि प्रवर सार-वर्ण का वैभव मेरा नहीं है, फिर भी उसका ममत्व भाव अपरिज्ञात होता है, प्रत्याख्यात नहीं होता। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-श्रमणोपासक अपने भाण्ड की अनुगवेषणा करता है,पराए भाण्ड की अनुगवेषणा नहीं
करता। २३३. भंते! कोई श्रमणोपासक श्रमणों के उपाश्रय में आसीन होकर सामायिक कर रहा है। उस समय कोई पुरुष उसको जाया (भार्या) का सेवन करता है? तो क्या वह उसकी जाया
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