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भगवती सूत्र
श. ८ : उ. १,२ : सू. ८१-८६ गौतम! सत्य-मन-प्रयोग-परिणत भी हैं यावत् असत्यामृषा-मन-प्रयोग-परिणत भी हैं। अथवा एक सत्य-मन-प्रयोग-परिणत है, दो मृषा-मन-प्रयोग-परिणत हैं। इस प्रकार द्विक-सांयोगिक और त्रिक-सांयोगिक भंग वक्तव्य हैं। यहां द्रव्य-त्रय के अधिकार में भी द्रव्य-द्वय के अधिकार (सूत्र ७३ से ७८) के समान वक्तव्यता यावत् अथवा एक त्र्यस-संस्थान-परिणत है, एक चतुरस्र-संस्थान-परिणत है, एक आयत-संस्थान-परिणत है। चार द्रव्यों की अपेक्षा पुद्गल-परिणति-पद ८२. भन्ते! चार द्रव्य क्या प्रयोग-परिणत हैं? मिश्र-परिणत हैं? विस्रसा-परिणत हैं? गौतम! १. वे प्रयोग-परिणत भी हैं २. मिश्र-परिणत भी हैं ३. विस्रसा-परिणत भी हैं ४. अथवा एक प्रयोग-परिणत है, तीन मिश्र-परिणत हैं ५. अथवा एक प्रयोग-परिणत है, तीन विस्रसा-परिणत हैं ६. अथवा दो प्रयोग-परिणत हैं, दो मिश्र-परिणत हैं ७.. अथवा दो प्रयोग-परिणत हैं, दो विस्रसा-परिणत हैं ८. अथवा तीन प्रयोग-परिणत हैं, एक मिश्र-परिणत है ९. अथवा तीन प्रयोग-परिणत हैं, एक विस्रसा-परिणत है १०. अथवा एक मिश्र-परिणत है, तीन विस्रसा-परिणत हैं ११. अथवा दो मिश्र-परिणत हैं, दो विस्रसा-परिणत हैं १२. अथवा तीन मिश्र-परिणत हैं. एक विससा-परिणत है १३. अथवा एक प्रयोग-परिणत है. एक मिश्र-परिणत है, दो विस्रसा-परिणत हैं १४. अथवा एक प्रयोग-परिणत है, दो मिश्र-परिणत हैं, एक विस्रसा-परिणत है १५. अथवा दो प्रयोग-परिणत हैं, एक मिश्र-परिणत है, एक विससा-परिणत है। ८३. यदि प्रयोग-परिणत हैं तो क्या मन-प्रयोग-परिणत हैं? वचन-प्रयोग-परिणत हैं? काय-प्रयोग-परिणत हैं? इस प्रकार इस क्रम से पांच, छह, सात, यावत् दस, संख्येय, असंख्येय और अनन्त द्रव्य वक्तव्य हैं-द्विक-संयोग, त्रिक-संयोग यावत् दस-संयोग और द्वादश-संयोग की उपयोजना कर जहां जितने संयोग बनते हैं वे सब वक्तव्य हैं। इन्हें जैसे नवें शतक के प्रवेशनक प्रकरण (सूत्र ८६ से ११९) में कहेंगे वैसे ही उपयोजना कर वक्तव्य हैं यावत् असंख्येय और अनन्त की इसी प्रकार वक्तव्यता, इतना विशेष है-एक पद अधिक है यावत् अथवा अनन्त परिमण्डल-संस्थान-परिणत हैं यावत् अनन्त आयत-संस्थान-परिणत हैं। ८४. भन्ते! इन प्रयोग-परिणत, मिश्र-परिणत और विस्रसा-परिणत पुद्गलों में कौन किन से
अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं? गौतम! प्रयोग-परिणत पुद्गल सबसे कम हैं, मिश्र-परिणत उनसे अनन्त-गुना हैं, विस्रसापरिणत उनसे अनन्त-गुना हैं। ८५. भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही है।
दूसरा उद्देशक आशीविष-पद ८६. भन्ते! आशीविष कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं?
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