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भगवती सूत्र
श. ८ : उ. १ : सू. २१-२९
और गर्भावक्रान्तिक- खेचर की वक्तव्यता । प्रत्येक के पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद वक्तव्य हैं।
२२. संमूर्च्छिम- मनुष्य - पंचेन्द्रिय की पृच्छा ।
गौतम ! संमूर्च्छिम- मनुष्य-पंचेन्द्रिय एक प्रकार के ही प्रज्ञप्त हैं-वे अपर्याप्तक ही होते हैं । २३. गर्भावक्रान्तिक-मनुष्य-पंचेन्द्रिय की पृच्छा।
गौतम ! गर्भावक्रान्तिक- मनुष्य-पंचेन्द्रिय दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे - पर्याप्तक- गर्भावक्रान्तिक और अपर्याप्तक- गर्भावक्रान्तिक ।
२४. असुरकुमार - भवनवासी देवों की पृच्छा ।
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गौतम ! असुरकुमार - भवनवासी दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे- पर्याप्तक - असुरकुमार और अपर्याप्तक- असुरकुमार । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार के पर्याप्तक- अपर्याप्तक की
वक्तव्यता ।
२५. इस प्रकार इस अभिलाप के अनुसार पिशाच यावत् गंधर्व के दो-दो भेद - पर्याप्तक और अपर्याप्तक वक्तव्य हैं । चन्द्र यावत् ताराविमान, सौधर्म कल्पोपग यावत् अच्युत, सबसे नीचे वाले ग्रैवेयक - कल्पातीतग यावत् सबसे ऊपर वाले ग्रैवेयक - कल्पातीतग । विजय- अनुत्तरौपपातिक यावत् अपराजित ।
२६. सर्वार्थसिद्ध-कल्पातीतग की पृच्छा ।
गौतम! सर्वार्थसिद्ध-कल्पातीतग दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-पर्याप्तक- सर्वार्थसिद्ध- अनुत्तरौपपातिक, अपर्याप्तक- सर्वार्थसिद्ध- अनुत्तरौपपातिक-प्रयोग-परिणत । शरीर की अपेक्षा प्रयोग- परिणति पद
२७. जो अपर्याप्त सूक्ष्म- पृथ्वीकायिक- एकेन्द्रिय-प्रयोग- परिणत हैं वे औदारिक, तैजस - और कर्म - शरीर प्रयोग - परिणत हैं। जो पर्याप्त सूक्ष्म- पृथ्वीकायिक- एकेन्द्रिय-प्रयोग- परिणत हैं वे औदारिक-, तैजस- और कर्म - शरीर प्रयोग - परिणत हैं । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय-पर्याप्त-प्रयोग-परिणत की वक्तव्यता । केवल इतना विशेष है - जो पर्याप्त - बादर-वायुकायिक- एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं वे औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कर्म शरीर- प्रयोग - परिणत हैं - शेष जो अपर्याप्त - बादर - वायुकायिक- एकेन्द्रिय-प्रयोग- परिणत हैं. वे औदारिक, तैजस और कर्म शरीर प्रयोग - परिणत हैं ।
२८. जो अपर्याप्त रत्नप्रभा - पृथ्वी - नैरयिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग- परिणत हैं वे वैक्रिय-, तैजसऔर कर्म - शरीर प्रयोग - परिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्त रत्नप्रभा - पृथ्वी- नैरयिक-पंचेन्द्रिय- प्रयोग - परिणत की वक्तव्यता । इसी प्रकार यावत् अधः सप्तमी - पृथ्वी नैरयिक-पंचेन्द्रिय- प्रयोग - परिणत की वक्तव्यता ।
२९. जो अपर्याप्त संमूर्च्छिम - जलचर - तिर्यंच-पंचेन्द्रिय-प्रयोग- परिणत हैं वे औदारिक-, - तैजस- और कर्म-शरीर प्रयोग- परिणत हैं ।
इसी प्रकार पर्याप्त संमूर्च्छिम - जलचर - तिर्यंच-पंचेन्द्रिय-प्रयोग- परिणत की वक्तव्यता । इसी
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