SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( XXVIII) श्रेणी के जीवों की वेदना का विमर्श किया गया है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और समूर्छिम पञ्चेन्द्रिय-ये सब असंज्ञी-अमनस्क होते हैं। इनकी अज्ञान-अवस्था को अंध आदि चार विशेषणों के द्वारा व्यक्त किया गया है। इन जीवों में मन का ज्ञान नहीं होता, फिर भी संवेदन होता है। संज्ञा--सिद्धान्त के अनुसार इनमें भय, क्रोध, लोभ आदि संवेगों से उत्पन्न संवेदन होता है। गौतम ने पूछा-भंते! पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों में 'हम इष्ट और अनिष्ट स्पर्श का संवेदन कर रहे हैं'-क्या इस प्रकार की संज्ञा, प्रज्ञा, मन और वचन होता है? भगवान नहीं होता, किन्तु वे इष्ट और अनिष्ट स्पर्श का संवेदन करते हैं। पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीव छह स्थानों का अनुभव या संवेदन करते हैं-१. इष्ट-अनिष्ट स्पर्श, २. इष्ट-अनिष्ट गति, ३. इष्ट-अनिष्ट स्थिति, ४. इष्ट-अनिष्ट लावण्य, ५. इष्ट-अनिष्ट यशःकीर्ति, ६. इष्ट-अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम। ___इन संदर्भो से स्पष्ट है कि मन-रहित जीवों में भी संवेदन होता है। इस प्रसंग में प्रो. मर्किल, वोगल तथा क्ली वैक्स्टर द्वारा पौधों पर किए गए प्रयोग उल्लेखनीय हैं। पेड़-पौधों के संवेदना-तंत्र की घटनाएं भी वैज्ञानिक अनुसंधान का विषय बन रही हैं।'' __भगवान् महावीर ने आगमों में जिस धर्म का प्रतिपादन किया है, वह विशुद्ध रूप में आध्यात्मिक धर्म है। उसका आरम्भ बिन्दु है-आत्मा का संज्ञान और उसका चरम बिन्दु है आत्मोपलब्धि या आत्म-साक्षात्कार । अध्यात्म के साधक के लिए आगमों में कुछ ऐसे सूत्र प्राप्त होते हैं जिन्हें जीवन में अनुप्रयुक्त करने से साधना में निखार आ जाता है-एक प्रकार से वे जीवन-दर्शन के रूप में सम्पूर्ण जीवन की राह बदल सकते हैं। उदाहरणार्थ-आयारो का एक सूत्र है-"अण्णहा णं पासए परिहरेज्जा।-अध्यात्म-तत्त्वदर्शी वस्तुओं का परिभोग अन्यथा करे-जैसे अध्यात्म के तत्त्व को नहीं जानने वाला मनुष्य करता है, वैसे न करे।"३ इसका तात्पर्य है-"अनगार आत्मा और परमतत्त्व को देखता है, इसलिए वह पश्यक-द्रष्टा होता है। ऐसा वह अनगार आहार आदि पदार्थों का परिभोग अन्य प्रकार से करे-गृहस्थ की भांति परिग्रह की बुद्धि से उनका परिभोग न करे। 'ये पदार्थ धर्मोपकरण हैं तथा आचार्य की निश्रा में हैं' ऐसा सोचकर उनका परिभोग करे, उनमें न मूर्छा करे और न ममत्व रखे। अन्य प्रकार से परिभोग करने का यह नियम अध्यात्म-साधना में उपस्थित गृहस्थ के लिए भी अनसरणीय है। जैसे अध्यात्म के रहस्य का अजानकार गहस्थ पदार्थों का उपभोग मूर्छा के अतिरेक से करता है, उस प्रकार से अध्यात्म के रहस्य को जानने वाला गृहस्थ न करे। मूर्छा का अतिरेक होने पर गाढ कर्मों का बंध होता है। मूर्छा की अल्पता में कर्मों का बंध भी शिथिल होता है।" १. भगवई (भाष्य), खण्ड २, ७/१५०- २. आचारांगभाष्यम्, प्रस्तुति, पृ.७। १५४, पृ. ३७७-३७८। ३. वही, २/११८, पृ. १२६ ।
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy