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श. ६ : उ. ९ : सू. १६२-१६७
नव उद्देशक
भगवती सूत्र
कर्मप्रकृति-बन्ध - पद
१६२. भन्ते ! जीव ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध करता हुआ कितनी कर्म-प्रकृतियों का बन्ध करता है ?
गौतम ! सात प्रकार की प्रकृतियों का बन्ध करता है । अथवा आठ प्रकार की कर्म-प्रकृतियों का बन्ध करता है । अथवा छह प्रकार की प्रकृतियों का बन्ध करता । यहां पण्णवणा का बन्ध - उद्देशक (पद २४) ज्ञातव्य है ।
महर्द्धिक देव की विक्रिया का पद
१६३. भन्ते ! क्या महान् ऋद्धि यावत् महान् शक्ति से सम्पन्न देव बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण किए बिना एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करने में समर्थ हैं ?
गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है।
१६४. भन्ते ! क्या देव बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करने में समर्थ हैं ?
हां, समर्थ है।
१६५. भन्ते ! क्या वह प्रज्ञापक स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करता है ? अथवा स्व-स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करता है ? अथवा इन दोनों से भिन्न किसी अन्य स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करता है ?
गौतम ! वह प्रज्ञापक-स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण नहीं करता, स्व-स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करता है, इन दोनों से भिन्न किसी अन्य स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण नहीं करता ।
चौभंगी है।
इस प्रकार इस गमक के अन्य विकल्प भी ज्ञातव्य हैं यावत् १. एक वर्ण और एक रूप का निर्माण २. एक वर्ण और अनेक रूप का निर्माण ३. अनेक वर्ण और एक रूप का निर्माण तथा ४. अनेक वर्ण और अनेक रूप का निर्माण - यह १६६. भन्ते ! क्या महान् ऋद्धि यावत् महान् शक्ति से सम्पन्न देव बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण किए बिना कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल को नील वर्ण वाले पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ हैं? अथवा नील वर्ण वाले पुद्गल को कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ हैं ?
गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है । वह बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर वैसा करने में समर्थ है। १६७. भन्ते ! क्या वह प्रज्ञापक- स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर परिणत करता है ? अथवा स्व-स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर परिणत करता है ? अथवा इन दोनों से भिन्न किसी अन्य स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर परिणत करता है ?
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