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(XXVI)
-“रात्रियां बीतने पर वृक्ष का पका हुआ पत्ता जिस प्रकार गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन एक दिन समाप्त हो जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर।"
इस आगम-सूक्त का भावपूर्ण स्वाध्याय जीवन की क्षणभंगुरता के प्रति साधक को सावधान करता है तथा क्षण भर भी प्रमाद न करने के लिए उत्प्रेरित करता है। आगमों में अनेक स्थानों पर आलम्बन-सूत्रों का प्रणयन हुआ है, जो साधक को आध्यात्मिक पथदर्शन देने में सक्षम हैं। जैसे
बहिया उड्डमादाय, नावकंखे कयाइ वि।
पुव्वकम्मखयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे।' -"बाह्य-शरीर से भिन्न ऊर्ध्व-आत्मा है इसे स्वीकार कर किसी प्रकार की आकांक्षा न करे। पूर्व कर्मों के क्षय के लिए ही इस शरीर को धारण करे।" ____ इसी प्रकार, आयारो का यह सूक्त एक सशक्त आलंबन है-एग्गप्पमुहे विदिसप्पइण्णे, निव्विन्नचारी अरए पयासु।'
--"मुनि अपने लक्ष्य की ओर मुख किए चले, वह विरोधी दिशाओं का पार पा जाए, विरक्त रहे, स्त्रियों में रत न बने।"
आगम-वाङ्मय तत्त्व-विषयक सूक्ष्म विवेचन से भरा हुआ है। सत्य-सन्धित्सु के लिए ऐसा विवेचन बहुत उपयोगी हो जाता है, क्योंकि वहां जो रहस्योद्घाटन हुए हैं, वे बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। आगम-ग्रन्थ अपने आप में विश्वस्त, मौलिक, तलस्पर्शी और प्रेरक हैं। उदाहरणार्थ-पृथ्वीकायिक आदि सूक्ष्म जीवों की वेदना पर प्रकाश डालते हुए भगवती में बताया गया है
"भंते! पृथ्वीकायिक जीव आक्रांत होने पर किस प्रकार की वेदना का प्रत्यनुभव करता हुआ विहरण करता है?
गौतम! जैसे कोई पुरुष तरुण, बलवान्, युगवान्, युवा, स्वस्थ और सधे हुए हाथों वाला है। उसके हाथ, पांव, पार्श्व, पृष्ठान्तर और उरू दृढ़ और विकसित हैं। सम-श्रेणी में स्थित दो ताल वृक्ष और परिघा के समान जिसकी भुजाएं हैं, चर्मेष्टक, पाषाण, मुद्गर और मुट्ठी के प्रयोगों से जिसके शरीर के पुढे आदि सुदृढ़ हैं, जो आंतरिक उत्साह-बल से युक्त है; लंघन, प्लवन, धावन और व्यायाम करने में समर्थ है; छेक, दक्ष, प्राप्तार्थ, कुशल, मेधावी, निपुण और सूक्ष्म शिल्प से समन्वित है। वह वृद्धावस्था से जीर्ण, जरा से जर्जरित देह वाला, आतुर, बुभुक्षित, पिपासित, दुर्बल, क्लांत पुरुष के मस्तक को दोनों हाथों से अभिहत करता है। गौतम! उस पुरुष के दोनों हाथों से मस्तक के अभिहत होने पर वह पुरुष कैसी वेदना का प्रत्यनुभव करता हुआ विहरण करता है?
आयुष्मन् श्रमण! वह अनिष्ट वेदना का प्रत्यनुभव करता हुआ विहरण करता है। १. उत्तरज्झयणाणि, ६/१३ ।
२. आयारो, ५/५४।