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भगवती सूत्र
श. ६ : उ. ३ : सू. २०-२६
हां, गौतम ! महा-कर्म, महा-किया, महा-आश्रव और महा-वेदना वाले पुरुष की आत्मा (शरीर) का परिणमन ऐसा ही होता 1
२१. यह किस अपेक्षा से ?
गौतम ! जैसे कोई वस्त्र अपरिभुक्त है, प्रक्षालित है अथवा तन्त्र ( करघा) से तत्काल निकला हुआ है । वह पहना जा रहा है तब कालक्रम से उसके सब ओर से पुद्गलों का बन्ध होता है, सब ओर से पुद्गलों का चय होता है यावत् परिणमन होता है । यह इस अपेक्षा से I अल्पकर्म वाले आदि के पुद्गल-भेद का पद
२२. भन्ते ! क्या अल्प-कर्म, अल्प-क्रिया, अल्प-आश्रव और अल्प-वेदना वाले पुरुष के सब ओर से पुद्गलों का भेदन होता है? सब ओर से पुद्गलों का छेदन होता है ? सब ओर से पुद्गलों का विध्वंस होता है ? सब ओर से पुद्गलों का परिविध्वंस होता है ? सदा प्रतिक्षण पुद्गलों का भेदन हाता है ? सदा प्रतिक्षण पुद्गलों का छदेन होता है ? सदा प्रतिक्षण पुद्गलों का विध्वंस होता है? सदा प्रतिक्षण पुद्गलों का परिविध्वंस होता है ? उस पुरुष की आत्मा सदा प्रतिक्षण सुरूप, सुवर्ण, सुगन्ध, सुरस, सुस्पर्श, इष्ट, कान्त, प्रिय, शुभ, मनोज्ञ, कमनीय, वांछनीय, लोभनीय और ऊर्ध्व रूप में न जघन्य रूप में सुख रूप में न दुःख-रूप में बार-बार परिणत होती है।
हां, गौतम ! यावत् परिणत होती है।
२३. यह किस अपेक्षा से ?
गौतम! जैसे कोई वस्त्र शरीर के मल, आर्द्रमल, कठिनमल और रजकरणों से सना हुआ हो उसका परिकर्म करने पर और शुद्ध जल से धोने पर कालक्रम से उसके सब ओर से पुद्गलों का भेदन होता है, यावत् शुद्धरूप में परिणमन होता है। यह इस अपेक्षा से ।
कर्मोपचय-पद
२४. भन्ते! वस्त्र के पुद्गलों का उपचय क्या प्रयोग से होता है ? अथवा स्वभाव से होता है ? गौतम ! प्रयोग से भी होता है और स्वभाव से भी होता है ।
२५. भन्ते ! जैसे वस्त्र के पुद्गलों का उपचय प्रयोग से भी होता है और स्वभाव से भी होता है, उसी प्रकार जीवों के कर्मों का उपचय प्रयोग से होता है ? अथवा स्वभाव से होता है ? गौतम ! प्रयोग से होता है, स्वभाव से नहीं होता ।
२६. यह किस अपेक्षा से ?
गौतम ! जीवों के तीन प्रकार के प्रयोग प्रज्ञप्त हैं- जैसे मन-प्रयोग, वचन-प्रयोग और कायप्रयोग। इस त्रिविध प्रयोग के आधार पर जीवों के कर्मों का उपचय प्रयोग से होता है, स्वभाव से नहीं होता है। इसी प्रकार सब पंचेन्द्रिय-जीवों के तीन प्रकार के प्रयोग वक्तव्य है । प्रयोग से कर्मों का उपचय होता है। इसी प्रकार यावत्
पृथ्वीकायिक- जीवों के एक प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों की वक्तव्यता ।
विकलेन्द्रिय-जीवों के दो प्रकार का प्रयोग वक्तव्य है-वचन - प्रयोग और काय - प्रयोग । इस
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