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द्वापरयुग्म है, कल्यो है ।" भ. २५/५६ (पृष्ठ ७९१)
पहले अनुवाद में हमने "भंते! परिमण्डल संस्थान द्रव्य की अपेक्षा क्या कृतयुग्म-चार द्रव्य हैं ? योज-तीन द्रव्य हैं ? द्वापरयुग्म-दो द्रव्य हैं ? कल्योज - एक द्रव्य है ?" इस प्रकार किया था किन्तु भाष्य लिखते समय पता चला कि कृतयुग्म का अर्थ 'चार' करने की अपेक्षा कृतयुग्म ही करना चाहिए, क्योंकि कृतयुग्म में चार, आठ, बारह आदि अनेक संख्याएं हैं। इस दृष्टि से यह परिवर्तन मैंने किया है। पहले अनुवाद करते समय मैंने अर्थ पर पूरा ध्यान नहीं दिया था । यह अर्थ २५/५६ से २५ / ६३ तक ऐसे ही किया था। हालांकि आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने इसे देख भी लिया था तथा आवश्यकतानुसार कई जगह परिवर्तन भी करवाया था जो पाण्डुलिपि में अभी भी अंकित हैं। पर उक्त गलती पर संभवतः उनका ध्यान नहीं गया होगा ।
एकाध स्थान पर मुझे मूल पाठ में भी पाठान्तर के आधार पर अनुवाद करना पड़ा है । उस पर भाष्य में मैंने स्पष्टीकरण कर दिया है, क्योंकि स्वीकृत पाठ में अर्थ की विसंगति होती है। जैसे- भगवती २५ / ६८ में अंगसुत्ताणि भाग - २ में मूल पाठ इस प्रकार दिया गया है - "तंसा णं भते ! संठाणा किं कडजुम्मपदेसोगाढा - पुच्छा ।
गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा, नो तेयोगपदेसोगाढा, नो दावरजुम्मपदेसोगाढा, नो कलियोगपदेसोगाढा ।।
नो
विधानादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा वि, तेयोगपदेसोगाढा वि, दावरजुम्मपदेसोगाढा, कलियोगपदेसोगाढा वि । चउरंसा जहा वट्टा ।"
श्रीमज्जयाचार्य ने भगवती-जोड़ में इस सूत्र के अनुवाद में दिये गए पाठ के अनुसार अनुवाद नहीं किया है, किन्तु 'हेम भगवती' में जो पाठ मिलता है उसके अनुसार अनुवाद किया है। भगवती-जोड़ की गाथाएं इस प्रकार हैं
होय । एस ॥ ३७ ॥
बहु वच तंस अहो जिनराया !, स्यूं कडजुम्म प्रदेश ओगाह्या ? इत्यादिक वर प्रश्न उदारं, श्री जिन उत्तर भाखै सारं ॥ ३६ ॥ ओघ समुच्चय करि अवलोय, कडजुम्म नभ अवगाहक त्र्योज दावर कलियोग प्रदेश, अवगाहक नहिं छै त्रिहुं विधान एक- इक आश्री सोय, कडजुम्म नभ अवगाहक होय । योज दावरजुम्म नभ अवगाही, कल्योज नभ अवगाहक नांही ॥ ३८ ॥ बहु वच चउरंसा संठाण, जिम बहु वच वृत्त तिण हिज विध कहिवो छै ऐह, ओघ विधान आश्रयी जेह ।। ३९ ।।
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आख्यो जाण ।
भ. जो. खण्ड ७, पृ. ३४, ३५, ढा. ४३७, गा. ३६-३९ इस प्रकाशित भगवती-जोड़ के प्रवाचक आचार्यश्री तुलसी हैं, प्रधान सम्पादक १. भगवती - जोड़, ढा. ४३७, गा. ३८ ।