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भगवती सूत्र
श. ३ : उ. २ : सू. ११२-११४ लोक को क्षुब्ध कर रहा है, भूमितल को कम्पित कर रहा है, तिरछे लोक को खींच रहा है, अम्बरतल का स्फोटन कर रहा है, कहीं गरज रहा है, कहीं बिजली बन कौंध रहा है, कहीं वर्षा बरसा रहा है, कहीं धूलि - विकिरण कर रहा है, कहीं सघन अन्धकार कर रहा है, वानव्यन्तर-देवों को संत्रस्त करता हुआ - संत्रस्त करता हुआ, ज्योतिष्क- देवों को दो भागों में विभक्त करता हुआ-विभक्त करता हुआ, आत्मरक्षक - देवों को भगाता हुआ-भगाता हुआ, परिघरत्न को आकाश में घुमाता हुआ घुमाता हुआ, तिरस्कार करता हुआ तिरस्कार करता हुआ उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, जविनी, छेक, सैंही, शीघ्र, उद्भुत और दिव्य देव-गति से तिरछे-लोक में असंख्य द्वीप समुद्रों के मध्यभाग से गुजरता - गुजरता जहां सौधर्म कल्प है, जहां सौधर्मावतंसक विमान है, जहां सुधर्मा सभा है वहां आता है। वहां वह अपने एक पांव को पद्मवरवेदिका पर रखता है, एक पांव सुधर्मा सभा में रखता है और ऊंचा - ऊंचा शब्द करता हुआ परिघरत्न से तीन बार इन्द्रकील पर प्रहार करता है। प्रहार कर इस प्रकार बोला- 'कहां है वह देवेन्द्र देवराज शक्र ? कहां हैं वे चौरासी हजार सामानिक देव ? कहां है। वे तेतीस तावत्रिंशक देव ? कहां हैं वे चार लोकपाल ? कहां हैं वे सपरिवार आठ पटरानियां ? कहां हैं वे तीन परिषदें ? कहां हैं वे सात सेनाएं ? कहां हैं वे सात सेनापति ? कहां हैं वे तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक - देव ? कहां हैं वे करोड़ों अप्सराएं ? आज मैं उनको मारता हूं, मथता हूं, व्यथित करता हूं, अब तक जो अप्सराएं मेरे वश में नहीं थीं वे अब मेरे वश में हो जाएं," ऐसा कर वह उस अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, मन को न भाने वाली, कठोर वाणी का प्रयोग करता है ।
मनोज्ञ,
शक्रेन्द्र द्वारा वज्र-प्रक्षेप - पद
११३. वे देवेन्द्र देवराज शक्र उस अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, मनको न भाने वाली, अश्रुतपूर्व, कठोर वाणी को सुन कर, अवधारण कर तत्काल आवेश में आ गया, रुष्ट हो गया, कुपित हो गया, उसका रूप रौद्र बन गया, वह क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त हो उठा। ललाट पर तीन रेखाओं वाली भृकुटि को चढ़ाकर असुरेन्द्र असुरराज चमर से इस प्रकार बोला- हे अप्रार्थनीय को चाहने वाले ! दुःखद अंत और अमनोज्ञ लक्षण वाले ! लज्जा और शोभा से रहित! हीनपुण्य चतुर्दशी को जन्मे हुए! असुरेन्द्र ! असुरराज ! चमर! आज तू नहीं बचेगा, अब तुम्हें सुख नहीं होगा, ऐसा कह कर वहीं सिंहासन पर बैठे-बैठे वज्र को हाथ में लेता है । वह जाज्वल्यमान, विस्फोटक, गड़गड़ाहट करता हुआ हजारों उल्काओं को छोड़ता हुआ, हजारों ज्वालाओं का प्रमोचन करता हुआ, हजारों अंगारों को बिखेरता हुआ, हजारों स्फुलिंगों और ज्वालाओं की माला से चक्षु - विक्षेप और दृष्टि का प्रतिघात करता हुआ, अग्नि से भी अतिरिक्त तेज से दीप्यमान, अतिशय वेग वाला, विकसित किंशुक (टेसू) पुष्प के समान रक्त, महाभय उत्पन्न करने वाला, भयंकर वज्र हाथ में उठा शक्र ने असुरेन्द्र असुरराज चमर का वध करने के लिए उसका प्रक्षेपण किया ।
चमर द्वारा भगवान् की शरण का पद
११४. वह असुरेन्द्र असुरराज चमर उस जाज्वल्यमान यावत् भयंकर वज्र को सामने आते हुए देखता है, देखकर चिन्तन में डूब जाता है, चिन्तन करते-करते आंखें मूंद लेता है। कुछ क्षणों
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