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श. २ : उ. ५-८ : सू. ११३-११८
भगवती सूत्र सघनरूप में गरम-गरम जल का अभिनिःसवण होता है। गौतम! यह महातपोपतीरप्रभव नामक निर्झर है। गौतम! यह महातोपतीरप्रभव निर्झर का अर्थ प्रज्ञप्त है। ११४. भन्ते! वह ऐसा ही है। भन्ते! वह ऐसा ही है-इस प्रकार कहते हुए भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं।
छठा उद्देशक भाषा-पद ११५. भन्ते! मैं मनन करता हूं, क्या यह अवधारिणी भाषा है? यहां भाषा-पद (पण्णवणा, पद ११) वक्तव्य है।
सातवां उद्देशक स्थान-पद ११६. भन्ते! देव कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं?
गौतम! देव चार प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-भवनपति, वानमन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक । ११७. भन्ते! भवनवासी-देवों के स्थान कहां प्रज्ञप्त हैं? गौतम! इस रत्नप्रभा-पृथ्वी में प्रज्ञप्त हैं। स्थान-पद (पण्णवणा, २।३०-६३) में जो देवों की वक्तव्यता है, वह कथनीय है। उनका उपपात लोक के असंख्यातवें भाग में होता है। इस प्रकार यह समूचा प्रकरण यावत् सिद्धकण्डिका की समाप्ति (पण्णवणा, २।३०-६७) तक वक्तव्य है। सौधर्म आदि कल्प-विमानों के प्रतिष्ठान (आधार), बाहल्य (मोटाई), ऊंचाई और संस्थान (आकृति) के लिए जीवाजीवाभिगम का जो वैमानिक उद्देश (३। १०५७-११३८) है, वह समग्र यहां वक्तव्य है।
आठवां उद्देशक चमरसभा-पद ११८. भन्ते! असुरेन्द्र असुरराज चमर की सुधर्मा सभा कहां प्रज्ञप्त है?
गौतम! जम्बूद्वीप द्वीप में मेरूपर्वत से दक्षिणभाग में तिरछे असंख्य द्वीपसमुद्रों के पार चले जाने पर अरुणवर द्वीप है। उसकी बाहरी वेदिका के आगे अरुणोदय समुद्र है। उसका बयालीस हजार योजन अवगाहन करने पर असुरेन्द्र असुरराज चमर का तिगिच्छिकूट नामक उत्पात-पर्वत प्रज्ञप्त है-उसकी ऊंचाई सतरह सौ इक्कीस योजन है। उसका उद्वेध (गहराई) चार सौ तीस योजन और एक कोश है। उसका मूल में विष्कम्भ (चौड़ाई) एक हजार बाईस योजन है, मध्य में उसका विष्कम्भ चार सौ चौबीस योजन है और ऊपर का विष्कम्भ सात सौ तेईस योजन है। उसकी मूल में परिधि तीन हजार दो सौ बत्तीस कुछ कम योजन है, मध्य में परिधि एक हजार तीन सौ इकतालीस कुछ कम योजन है, ऊपर की परिधि दो हजार दो सौ छयांसी योजन से कुछ अधिक है। वह मूल में विस्तृत, मध्य में संकड़ा और ऊपर विशाल
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