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भगवती सूत्र
भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में श्रद्धा करता हूं । भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में प्रतीति करता हूं । भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में रुचि करता हूं ।
भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में अभ्युत्थान करता हूं ।
भन्ते ! यह ऐसा ही है, भन्ते ! यह तथा (संवादितापूर्ण) है, भन्ते ! यह अवितथ है, भन्ते ! यह असंदिग्ध है, भन्ते ! यह इष्ट है, भन्ते ! यह प्रतीप्सित ( प्राप्त करने के लिए इष्ट) है और भन्ते ! यह इष्ट-प्रतीप्सित है
श. २ : उ. १: सू. ५२,५३
जैसा आप कह रहे हैं - ऐसा भाव प्रदर्शित कर वह श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार करता है, वन्दन - नमस्कार कर उत्तर-पूर्व दिशाभाग (ईशान कोण) की ओर जाता है, जाकर त्रिदण्ड, कमण्डलु, यावत् धातुरक्त शाटक को एकान्त में डाल देता है, डालकर जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां आता है। आकर श्रमण भगवान् महावीर को दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वन्दन - नमस्कार करता है, वन्दननमस्कार कर वह इस प्रकार बोला- भन्ते ! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त हो रहा है (जल रहा है), भन्ते ! यह लोक बुढ़ापे और मौत से प्रदीप्त हो रहा है (प्रज्वलित हो रहा है ), भन्ते ! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त- प्रदीप्त हो रहा है।
जैसे किसी गृहपति के घर में आग लग जाने पर वह वहां जो अल्पभार वाला और बहुमूल्य आभरण होता है, उसे लेकर स्वयं एकान्त स्थान में चला जाता है। (और सोचता है - ) अग्नि से निकाला हुआ यह आभरण पहले अथवा पीछे मेरे लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा ।
"देवानुप्रिय ! इसी प्रकार मेरा शरीर भी एक उपकरण है । यह इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत और आभरण करण्डक के समान है। इसे सर्दी न लगे, गर्मी न लगे, भूख न सताए, प्यास न सताए, चोर पीड़ा न पहुंचाए, हिंस्र पशु इस पर आक्रमण न करे, दंश और मशक इसे न काटे, वात- पित्त, श्लेष्म और संनिपात-जनित विविध प्रकार के रोग और आतंक तथा परीषह और उपसर्ग इसका स्पर्श न करें, इस अभिसंधि से मैंने इसे पाला है । मेरे द्वारा इसका निस्तार होने पर यह परलोक में मेरे लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगमिकता के लिए होगा। इसलिए देवानुप्रिय ! मैं आपके द्वारा ही प्रव्रजित होना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही मुण्डित होना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा शैक्ष बनना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूं तथा आपके द्वारा ही आचार, गोचर, विनय - वैनयिक - चरण- करण-यात्रामात्रा-मूलक धर्म का आख्यान चाहता हूं ।
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५३. श्रमण भगवान् महावीर कात्यायन - सगोत्र स्कन्दक को स्वयं ही प्रव्रजित करते हैं, स्वयं ही मुण्डित करते हैं, स्वयं ही शैक्ष बनाते हैं, स्वयं ही शिक्षित करते हैं और स्वयं ही आचारगोचर, विनय-वैनयिक-चरण-करण - यात्रामात्रा-मूलक धर्म का आख्यान करते हैं - देवानुप्रिय ! इस प्रकार चलना चाहिए, इस प्रकार ठहरना चाहिए, इस प्रकार बैठना चाहिए, इस प्रकार