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भगवती सूत्र
श. १ : उ ६ : सू. ३११-३१६
मध्य भाग की गांठ खोलता है। गौतम ! क्या वह पानी उस वायु के ऊपर-ऊपर ठहरता है ?
हां, ठहरता है।
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गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - लोक- स्थिति आठ प्रकार की प्रज्ञप्त है यावत् जीव कर्म के द्वारा संगृहीत हैं ।
जैसे कोई पुरुष मशक में हवा भरता है, उसमें हवा भरकर उसे अपने कटि प्रदेश में बांधता है, वहां बांधकर अथाह, अतर तथा अपौरुषेय जल में अवगाहन करता है। गौतम ! क्या वह पुरुष जल के ऊपर-ऊपर ठहरता है ?
हां, ठहरता है।
इसी प्रकार लोक- स्थिति आठ प्रकार की प्रज्ञप्त है यावत् जीव कर्म के द्वारा संगृहीत हैं ।
जीव- पुद्गल-पद
३१२. भन्ते ! क्या जीव और पुद्गल अन्योन्य - बद्ध, अन्योन्य- स्पृष्ट, अन्योन्य- अवगाढ, अन्योन्य-स्नेहप्रतिबद्ध और अन्योन्य- एकीभूत बने हुए हैं ?
हां, बने हुए हैं।
३१३. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - जीव और पुद्गल अन्योन्य-बद्ध, अन्योन्य-स्पृष्ट, अन्योन्य- अवगाढ, अन्योन्य-स्नेहप्रतिबद्ध और अन्योन्य- एकीभूत बने हुए हैं ?
गौतम ! जैसे कोई ग्रह (नद) है। वह जल से पूर्ण, परिपूर्ण प्रमाण वाला, छलकता हुआ, हिलोरें लेता हुआ चारों ओर से जलजलाकार हो रहा है ।
कोई व्यक्ति उस द्रह में एक बहुत बड़ी सैकड़ों आश्रवों और सैकड़ों छिद्रों वाली नौका को उतारे । गौतम ! वह नौका उन आश्रव द्वारों के द्वारा जल से भरती हुई - भरती हुई, पूर्ण, परिपूर्ण प्रमाण वाली, छलकती हुई, हिलोरें लेती हुई, चारों ओर से जलजलाकार हो जाती है ?
हां, हो जाती है।
गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - जीव और पुद्गल अन्योन्य-बद्ध, अन्योन्य- स्पृष्ट, अन्योन्य-3 - अवगाढ, अन्योन्य-स्नेहप्रतिबद्ध और अन्योन्य - एकीभूत बने हुए हैं ।
स्नेहकाय-पद
३१४. भन्ते ! क्या सूक्ष्म स्नेहकाय सदा संगठित रूप में गिरता है ?
हां, गिरता है।
३१५. भन्ते ! क्या वह ऊंचे लोक में गिरता है ? नीचे लोक में गिरता है ? तिरछे लोक में गिरता है ?
गौतम ! ऊर्ध्वलोक में भी गिरता है, नीचे लोक में भी गिरता है, तिरछे लोक में भी गिरता है । ३१६. जैसे वह बादर (स्थूल) जल परस्पर संयुक्त होकर बहुत लम्बे समय तक रहता है, क्या
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