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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ ३७. चोथो घनघातीयों अंतराय करम छ, तिणरी प्रकृत पांच कही जिण तांम।
ते पांचूंई प्रकृत पुदगल चोफरसी, त्यां प्रकत रा छे जू जूआ नाम ।।
३८. दानाअंतराय में दांन रे आडी, लाभाअंतराय सूं वस्त लाभ सकें नांही।
मन गमता पुदगल नां सुख जे, लाभ न सकें शब्दादिक कांई।।
३९. भोगाअंतराय ना कर्म उदें सूं, भोग मिलीया में भोग भोगवणी नावें।
उवभोगाअंतराय कर्म उदें सूं, उवभोग मिलीया तो ही भोगवणी नही आवें।।
४०. वीर्यअंतराय रा करम उदें थी, तीनूंई वीर्य गुण हीणा थावें।
उठाणादिक हीणा थाों पाचूईं, जीव तणी सक्त जाबक घट जावें।।
४१. अनंतों बल प्राकम जीव तणों छे, तिणनें एक अंतराय करम सं घटीयो।
तिण कर्म ने जीव लगायां सु लागों, आप तणों कीयों आप रे उदें आयो।।
४२. पांचूं अन्तराय जीव तणा गुण दाब्या, जेहवा गुण दाब्या छ तेहवा कर्मी रा नाम।
ों तो जीव रे प्रसंगें नाम कर्म रा, पिण सभाव दोयां रों जूजूओं तांम।।
४३. मैं तो च्यार घनघातीया कर्म कह्या जिण, हिवें अघातीया कर्म छे च्यार।
त्यांमें पुन में पाप दोनूं कह्या जिण, हिवें पाप तणों कहूं छू विसतार।।
४४. जीव असाता पावें पाप करम उदें सूं, तिण पाप रों असाता वेदनी नाम।
जीव रा संचीया जीव में दुख देवें, असाता वेदनी पुदगल परिणाम ।।