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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१
११. अवधि दर्शणावर्णी कर्म उदें सूं, अवधि दर्शन न पामें जीवो।
केवल दर्शणावर्णी तणे परसंगें, उपजें नही केवल दरसण दीवो।।
१२. निद्रा सुतो तो सुखे जगायो जागें, निद्रा निद्रा उदें दुख जागें छे तांम।
बैठां उभां जीव में नींद आवें, तिण नींद तणों छे प्रचला नाम ।।
१३. प्रचला प्रचला नींद उदें सूं जीव नें, हालतां चालतां नीद आवें।
पांचमी नींद छे कठण थीणोदी, तिण नींद तूं जीव जाबक दब जावें।।
१४. पांच निद्रा ने च्यार दर्शणावर्णी थी, जीव अंध हवें जाबक न सुझें लिगारो।
देखण आश्री दर्शणावर्णी कर्म, जीव रे जाबक कीयों अंधारो।।
१५. दर्शणावर्णी कर्म खयउपसम हुवें जद, तीन खयउपसम दर्शन पांमतों जीवो।
दर्शणावर्णी जाबक खय होवें, केवल दर्शण पांमें ज्यूं घट दीवों।।
१६. तीजो घन घातीयो मोह कर्म छे, तिणरा उदा सूं जीव होवें मतवालो।
सूधी सरधा रे विषे मूढ मिथ्याती, माठा किरतब रो पिण न हुवें टालों।।
१७. मोहणी कर्म तणा दोय भेद कह्या जिण, दर्शण मोहणी ने चारित मोहणी कर्म।
इण जीव रा निज गुण दोय विगाड्या, एक समकत में दूजों चारित धर्म।।
१८. वले दंसण मोहणी उदें हुवें जब, सुध समकती जीव रों हुवें मिथ्याती।
चारित मोहणी कर्म उदें जब, चारित खोय में हुवें छ काय रों घाती।।