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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ २. रत्न हीरा ने माणक पना, मन मांने ज्यूं देवता देत जी।
वीर री वांणी सफल करे, देवता पिण लाहो लेत जी॥
३. धन दीयां हुवें धर्म जिण भाखीयों, देवता दान दें दगचाल जी।
यूं कीयां वीर वांणी सफल हुवें, तो अछेरो नही हुवें तिण काल जी॥
४. धन धांनादिक लोकां नें दीयां, ए तो निश्चेंइ सावध दांन जी।
तिणमें धर्म नही जिणराज रो, ते भाख्यों में श्री भगवान जी॥
जो जीव वचायां जिण धर्म हुवें, ओं तो देवतां रें आसांन जी। अनंता जीवां ने वचाय नें, वांणी सफल करतां देवांन जी॥
६. असंख्याता समदिष्टी देवता, एकीको वचावत अनंत जी।
जो धर्म हुवें आघों न काढता, वीर री वांणी में सफल करंत जी॥
७.
साध श्रावक रों धर्म छे विरत में, जीव हणवा रा करें पचखांण जी। ए धर्म देवतां थी हुवें नही, तिणसू निरफल गई वीर वांण जी॥
८. जीवां में जीवां वचावीयां हुवें, संसार तणों उपगार जी।
यूं तो सफल न हुवें वांणी वीर नी, धर्म रों नही अंस लिगार जी॥
९. असंजती नें जीवां में वचावीयां, वले असंजती नें दीयां दांन जी।
इम कीयां वीर वाणी सफल हुवें, ओ तो देवतां रे पिण आसांन जी॥
१०. कुपातर जीवां नें वचावीयां, कुपातर ने दीधां दांन जी।
ओ सावद्य किरतब संसार नों, भाख्यो श्री भगवान जी॥
११. उतराधेन अठावीसमें कह्यों, मोख ना मारग भाख्या च्यार जी।
बाकी सर्व कांमा संसार ना, सावद्य जोग व्यापार जी॥