________________
३१४
भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ ४४. ग्यांन दर्शण ने देस चारित श्रावक मझे रे,
__गोसालो तो एकंत अधर्मी जांण रे। तिणनें बचायां धर्म किहां थकी रे,
तिणरों न्याय न जाणे मूढ अयांण रे॥
४५. गोसाला में वचायां रो कहें धर्म छे रे, श्रावक नें वचायां कहें पाप रे।
एहवो अंधारो छे विकलां तणे रे, उंधी सरधारी कर राखी , थाप रे॥
४६. बारें वरस में तेरें पख मझे रे,
छदमस्थ रह्या में श्री भगवान रे। तिणमें एक गोसाला ने वचावीयो रे,
किणनें न वचाया श्री विरधमांन रे॥
४७. गोसाला में दुष्टी ने बचावीयां रे,
जो धर्म कठेइ जांणे सांम रे। तो दोइ साध वचावत आपणा रे,
वले सत दिन करता ओहीज काम रे॥
४८. गोसाला दुष्टी नें वचावीयां रे,
तिण माहे धर्म जाणे जिणराय रे। दोय साध मरता नही राख्या आपणा रे,
ओ पिण किण विध मिलसी न्याय रे॥
४९. अकाले जगत में मरतो देखीया रे,
पिण आडा न दीधा भगवंत हाथ रे। धर्म हुवे तो भगवंत आघो नही काढ़ता रे,
निश्चेंइ तिरण तारण जगनाथ रे॥
५०. अनंत चोबीसी तो आगें हुइ रे, हिवडा तों रिषभादिक चोवीस रे। त्यां तारया भव जीवा ने समझाय ने रे,
पिण मरता न राख्या श्री जगदीश रे॥