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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ ३७. जब कहें मानें तो हाथ न फेरणा रे,
| मरों भावें दुखी घणा हुवों तांम रे। मरणों जीवणों मूल न वांछे तेहनो रे,
म्हारे ग्रहस्थ सूं कांइ काम रे॥
३८. तो गोसाला दुष्टी में वीर वचावीयों रे,
तिण माहे कहो , निकेवल धर्म रे। तो श्रावक मरता में नही वचावीयां रे,
त्यांरी सरधा रो त्यांहीज काढ्यों भर्म रे॥
३९. श्रावक ने वचायां धर्म गिणे नही रे,
गोसाला नें वचायां गिणे धर्म रे। ते ववेक विकल जें सुध बुध बाहिरा रे,
- उंधी सरधा सूं बांधे पाप कर्म रे।।
४०. गोसाला पापी दुष्टी रे कारणे रे, लब्द फोडवी , श्री जगनाथ रे।
तो सो श्रावक जीवा मरता देख में रे, ते काय न फेरे त्यारें हाथ रे॥
४१. धर्म कहें गोसाला नें वचावीयां रे,
तो पोतें कांय छोडी धर्म री रीत रे। सों श्रावक मरता ने वचावे नही रे,
त्यां विकलां री विकल करें परतीत रे॥
४२. गोसाला दुष्टी ने वीर वचावीयो रे,
तिण माहे धर्म कहें साख्यात रे। सो श्रावक मरतां में नही वचावीयां रे,
त्यां विकलां री विगड़ी सरधा वात रे॥
४३. श्रावक आखुड़ ने पड मरतों हुवें रे, जिण नें पड़तां झेलें राखें नांहि रे।
गोसाला नें वचायां कहे धर्म छ रे, ओं पिण अंधारों त्योरें मांहि, रे॥