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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ ३३. छ काय मारयां माहे धर्म वतावें, त्यांरी सरधा घणी छे उंधी जी।
ते मोह मिथ्यात में जडीया अग्यांनी, त्यांने सरधा न सूझें संधी जी।।
३४. त्यांने पिण पूछयां कहें हें दयाधर्मी छां, पिण निश्चं छ काय रा घाती जी।
त्यां हिंसाधर्म्या ने साध सर) केई, ते पिण निश्चे मिथ्याती जी॥
३५. केई कहें साध जीव वचावें, राखें रखावें भलो जांणे जी।
ते जिण मारग रा अजांण अग्यांनी, इसडी चरचा आंणें जी॥
३६. साधु तो जीवां में क्यांने वचावें, ते पच रह्या निज कर्मो जी।
कोइ साधु री संगत आय करे तो, सीखाय देवें जिण धर्मो जी॥
३७. छ काय रा सस्त्र जीव इविरती, त्यांरो जीवणों मरणों न चावें जी।
त्यांरो जीवणों मरणों साध वंछे तो, राग धेष बेहूं आवें जी॥
३८. छ काय रा सस्त्र जीव इविरती, त्यांरो जीवणों मरणों खोटो जी।
त्यांने हणवा रो त्याग कीयो तिण माहे, दया तणों गुण मोटो जी॥
३९. असंजम जीतब में बाल मरण, यां दोया री वंछा न करणी जी।
पिंडत मरण ने संजम जीतब, यांरी आसा वंछां मन धरणी जी।।
४०. छ काय रा सस्त्र जीव इविरती, त्यांरो असंजम जीतब जांणो जी।
सर्व सावध रा त्याग कीया त्यांरो, संजम जीतब एह पिछांणो जी॥
४१. त्रिविधे त्राइ छ काय रा साधु, त्यांरी दया निरंतर राखे जी।
ते छ काय रा पीहर छ काय ने मारयां, धर्म किसें लेखें भाखें जी॥