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________________ २६८ भिक्षु वाङ्मय खण्ड - १ ११. सों घर रें आंतर कोई लेवें संथारो, तो तुरत आलस छोडी देवण जावें । सों पगलां गयां जीव लाखां बचें छें, त्यां जीवां नें जाए क्यूं न वचावें ॥ १२. घर छोडतों जांणे सों कासों उपरें, तो सांग पेंरावण सताब सूं जावें । एक कोस गयां जीव कोडां बचें छें, त्यां जीवां नें जाय नें क्यूं न बचावे ॥ १३. जब तों कहें म्हांरो कल्प नही छें, म्हें तों संसार सूं हूआ न्यारा । कब ही कहें म्हें जीव बचावां, उवे वांणी न बोलें एकण धारा ॥ १४. साधु तो आपरा व्रत राखण नें, संसार माहे जीव पच रह्या छें, त्रिविध त्रिविध जीव नही संतावें । त्यांसूं तो साध हुवा निरदावें । आ सरधा श्री जिणवर भाखी ।। १५. जीवणों मरणों त्यांरो नही चावें, समझें तो देखे तो साध समझावें । ग्यांनादिक गुण घट माहे घालें, मुगतनगर में साध पोहचावें ॥ १६. ग्रहस्थ रा पग हेठें जीव आवें तो, भेषधारी कहें म्हें तुरत बतावां । ते पिण जीव बचावण काजें, म्हें सर्व जीवां रों जीवणो चावां ॥ १७. इविरती जीवां रो जीवणों वांछें, तिण धर्म से परमारथ नही पायो । आ सरधा अग्यांनी री पग-पग अटकें, ते सांभलजों भवीयण चित ल्यायो ॥ १८. ग्रहस्थ रे तेल जानें मूंण फूटां, ते कीड्यां रा दर माहे रेळो आवें । बिच में जीव आवे ते तेल सूं वहिता, वले तेल वूहो वूहो अगन में जावें ।।
SR No.032415
Book TitleAcharya Bhikshu Tattva Sahitya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni, Shreechan
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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