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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ ३२. जो तूं धर्म न छोडसो, थारें देव गुर जिम छे माय रे।
तिणने मारूं इण विध आगली, थारा मूहढा आगे ल्याय रे॥
३३. जद आरत ध्यान तूं ध्याय नें, परसी माठी गति में जाय रे।
सुणनें चूलणीपीया चल गयों, माने राखण रो करें उपाय रे॥
३४. ओ तो पुरुष अनार्य कहे जिसों, झाल राखू ज्यू न करें घात रे।
ते तो भद्रा वचावण उठीयों, इणरें थांभो आयो हाथ रे॥
३५. अणुकंपा आंणी जिणणी तणी, तो भागा वरत ने नेम रे।
देखो मोह अणुकंपा एहवी, तिणमें धर्म कहीजे केम रे॥
३६. चूलणीपीया में सूरादेव ना, चूलशतक ने सकडाल रे।
यां च्यांरा ना मारया दीकरा, देव तलीया तेल उकाल रे॥
३७. बेटां नें मरता देखीया, नांणी मोह अणुकंपा पेम रे।
उठ्या मात त्रियादिक राखवा, तो भागा वरत ने नेम रे॥
३८. मात त्रियादिक राखितां, भागा व्रत में बंध्या कर्म रे।
तो साध विचें जाए पडीयां थकां, यांने किण विध होसी धर्म रे॥
३९. चेडा ने कोणिक नी वारता, निरावलिका भगोती साख रे।
मानव मूआ दोय संगरांम में, एक कोड में असी लाख रे॥
४० भगवंत अणुकंपा आंण नें, पोत न गया न मिल्या साध रे।
यांने पेंहला पिण वरज्या नही, घणा जीवां री जाणे विराध रे॥
४१. ए दया अणुकंपा जाणता, तो वीर वडाले जाय रे।
सगला ने साता वपरावता, थोडा में देता चूकाय रे।।