________________
१७६
भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१
२. तीन काल रा सुख देवां तणां रे, ते सुख इधिका घणां अथाग रे।
ते सगलाइ सुख एकण सिध में रे, तुले नावें अनंतमें भाग रे।।
३. संसार नां सुख तो छ पुदगल तणा रे, ते तो सुख निश्चें रोगीला जांण रे।
ते कर्मी वस गमता लागें जीव नें रे, त्यां सुखां री बुधवंत करों पिछांण रे।।
४. पांव रोगीलो हुवें , तेहनें रे, अतंत मीठी लागें , खाज रे।
एहवा सुख रोगीला छे पुन तणा रे, तिणसूं कदेय न सीझें आत्म काज रे।।
५. एहवा सुखां सूं जीव राजी हुवें रे, तिणरें लागें छे पाप कर्म रा पूर रे।
पठे दुःख भोगवें छे नरक निगोद में रे, मुगत सुखां सूं पडीयो दूर रे।।
६. छूटा जनम मरण दावानल तेह थी रे, ते तों छे मोख सिध भगवंत रे।
त्यां आठोइ कर्मा ने अलगा कीया रे, जब आठोइ गुण नीपना अनंत रे।।
७. ते मोख सिध भगवंत तो इहां हिज हुआ रे,पछे एक समा में उंचा गया छे थेट रे।
सिध रहिवा नो खेत्र में तिहां जाए रह्या रे, अलोक सूं जाए अड्या , नेट रे।।
८. अनंतो ग्यांन ने दर्शन तेहनो रे, वले आत्मीक सुख अनंतों जांण रे।
खायक समकत छे सिध वीतराग तेहने रे, वले अवगाहणा अटल छे निरवांण रे।।
९. अमूरतीपणों त्यांरो परगट हवो रे, हलको भारी न लागें मूल लिगार रे।
तिणसूं अगुरलघू में अमूरती कह्यां रे, ए पिण गुण त्यांमें श्रीकार रे।।
१०. अंतराय कर्म सूं तों रहीत छ रे, त्यारें पुदगल सुख चाहीजें नाहि रे।
ते निज गुण सुखां माहे झिले रह्या रे, कांइ उणारत रही न दीसें कांय रे।।
११. छूटा कलकली भूत संसार थी रे, आठोइ कर्मी तणों कर सोष रे।
ते अनंता सुख पांम्यां सिवे रमणी तणां रे, त्यांने कहीजें अविचल मोख रे।।