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________________ १४४ भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ ४४. भोगा अंतराय खयउपसम्यां, भोग लबध उपनें छे ताहि हो। उपभोगा अंतराय खयउपसम हूआं, उपभोग लबध उपजें आय हो।। ४५. दांन देवा री लब्द निरंतर, दांन देवें ते जोग व्यापार हो। लाभ लब्ध पिण निरंतर रहें, वस्त लाभे ते किणही वार हो।। ४६. भोग लबद तो रहें , निरंतर, भोग भोगवें ते जोग व्यापार हो। उपभोग पिण लब्ध छे निरंतर, उपभोग भोगवें जिण वार हो।। १४७. अंतराय अलगी हूआं जीव रे, पुन सारू मिलसी भोग उपभोग हो। साधु पुदगल भोगवे ते सुभ जोग छे, ओर भोगवे ते असुभ जोग हो।। ४८. वीर्य अंतराय खयउपसम हुआं, वीर्य लबध उपजें जें ताहि हो। वीर्य लबध ते सगत छे जीव री, उतकष्टी अनंती होय जाय हो।। ४९. तिण वीर्य लबध रा तीन भेद छ, तिणरी करजों पिछांण हो। बाल वीर्य कह्यों छे बाल रो, ते चोथा गुणठांणा तांई जांण हो।। ५०. पिंडत वीर्य कह्यों पिडंत तणो, छठा थी लेइ चवदमें गुणठांण हो। बाल पिंडत वीर्य कह्यों छे श्रावक तणो, ए तीनोंई उजल गुण जांण हो।। ५१. कदे जीव वीर्य ने फोडवे, ते जें जोग व्यापार हो। सावद्य निरवद तो जोग छे, ते वीर्य सावद्य नही छे लिगार हो।। ५२. वीर्य तो निरंतर रहें, चवदमा गुणठांणा लग जांण हो। ____बारमा ताइ तो खयउपसम भाव छे, खायक तेरमें चवदमें गुणठांण हो।। ५३. लबध वीर्य. में तो वीर्य कह्यों, करण वीर्य में कह्यों जोग हो। ते पिण सगत वीर्य ज्यां लगे, त्यां लग रहें पुदगल संजोग हो।।
SR No.032415
Book TitleAcharya Bhikshu Tattva Sahitya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni, Shreechan
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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