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दोहा
१. आश्रव कर्म आने के द्वार हैं, परन्तु मूर्ख आश्रव को कर्म बतलाते हैं । जो कर्म-द्वार और कर्म को एक बतलाते हैं, वे अज्ञानी भ्रम में भूले हुए हैं ।
२. कर्म और आश्रव अलग-अलग हैं। उनके स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं । जो मूढ़ जन इसका न्याय नहीं जानते, वे कर्म और आश्रव को एक बतलाते हैं ।
३. एक ओर तो वे आश्रव को रूपी बतलाते हैं और दूसरी ओर उसे कर्म आने का द्वार कहते हैं। द्वार और द्वार में होकर जो आता है उसको मूढ़ अज्ञानीजन एक कहते हैं ।
४. वे तीनों योगों को रूपी कहते हैं और फिर उन्हीं को आश्रव द्वार कहते हैं । फिर तीन योगों को वे कर्म कह रहे हैं । विकलों को यह भी विचार नहीं है ।
५. आश्रव के बीस भेद हैं । वे जीव के पर्याय हैं । उनको कर्म का कारण कहा है। उन्हें ध्यान लगाकर सुनें ।
ढाल : ७
आश्रव को जो आजीव कहते हैं, वे अज्ञानी हैं ।
१. तत्त्वों को अयथार्थ श्रद्धना मिथ्यात्व आश्रव है । अयथार्थ श्रद्धान करने वाला साक्षात् जीव है । उस मिथ्यात्व आश्रव को जो अजीव श्रद्धता है, उसके घट में घोर मिथ्यात्व है।