SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नव पदार्थ १०१ ६२. जिनके गाढ़ मिथ्यात्व का अंधेरा है, वे आश्रव द्वार को नहीं पहचानते । उनको बिलकुल ही सुलटा नहीं दीखता । वे दिन - दिन अधिक उलझते जाते हैं। ६३. जीव को आठ कर्म घेरे हुए हैं। वे प्रवाह रूप से जीव के अनादि काल से लगे हुए हैं। उनमें चार कर्म घाती हैं, जो मोक्षमार्ग को प्राप्त नहीं होने देते । ६४. अन्य कर्मों से तो जीव आच्छादित होता है, परन्तु मोहकर्म से जीव बिगड़ता है। बिगड़ा हुआ जीव सावद्य व्यापार करता है । वे ही आश्रव -द्वार हैं । I ६५. चारित्र मोह के उदय से जीव मतवाला हो जाता है, जिससे सावद्य कार्यों से अपना बचाव नहीं कर सकता। जो सावद्य कार्यों का सेवन करने वाला है, वही आश्रव द्वार है । ६६. दर्शन मोह के उदय से जीव विपरीत श्रद्धा करता है । उसके सच्चा मार्ग हाथ नहीं आता। विपरीत श्रद्धा करने वाला ही मिथ्यात्व आश्रव द्वार है । ६७. मूढ़ जन आश्रव को रूपी कहते हैं । भगवान महावीर ने आश्रव को अरूपी कहा है। सूत्रों में जगह-जगह आश्रव को अरूपी कहा है। ६८. पांच आश्रव और अव्रत को अशुभ लेश्या का परिणाम कहा है। अशुभ लेश्या अरूपी है। उसके लक्षण रूपी किस तरह होंगे ? ६९. मोहकर्म के संयोग और वियोग से योग क्रमशः मलिन और उजले कहे गए हैं। मोह कर्म के संयोग से उज्वल योग मलिन हो जाते हैं । कर्मों की निर्जरा से अशुभ योग उज्ज्वल हो जाते हैं । ७०. उत्तराध्ययन सूत्र के उनतीसवें अध्ययन में जिन भगवान ने योगसत्य का उल्लेख किया है। 'योग - सत्य' निर्दोष है । उसको साधुओं के गुणों के अन्तर्गत किया है।
SR No.032415
Book TitleAcharya Bhikshu Tattva Sahitya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni, Shreechan
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy