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________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा . का निमंत्रण दे रहे थे । मैं जानता था, कि इस निमंत्रण को मैं ठुकरा नहीं पाऊँगा अतः यह संकल्प करते हुए कि एक दिन इन्हीं गुफाओं में साधना हेतु निवास करूँगा, मैं निकल पड़ा । मेरे साथ भव्य भद्रहृदय भद्रमुनिजी, भक्तिसभर माताजी, ओलिये खंगारबापा एवं मस्त मौनी आत्माराम के आशीर्वाद थे; इस आशीर्वाद का प्रतीक था वह दिव्य ‘वासक्षेप' जिसे मुनिजी ने अत्यंत प्रेम से मुझे दिया था, मेरे मस्तक पर भर दिया था। ___अपनी दिवस-यात्रा पूरी कर सूरज दूर क्षितिज में ढ़ल रहा था; धरती से विदा हो रहा था और मैं अपनी साधना यात्रा पूरी कर इस तीर्थ से विदा हो रहा था; आकाश विविध रंगों से भर गया था..... मंद-मंद समीर बह रहा था..... गुफा मंदिर में से मेरे ही गाये गीत की प्रतिध्वनि उठ रही थी : "अह परम पद प्राप्ति, कर्यु ध्यान में, गजा वगर ने हाल मनोरथ रूप जो; तो पण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो, प्रभु-आज्ञाए थाशुं ते ज स्वरुप जो अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ?" 'अपूर्व अवसर' की प्रतीक्षा की अभीप्सा से परिपूर्ण यह प्रतिध्वनि मेरे कानों में गूंजती हुई, अंतर में अनुगूंज जगा रही थी, तो बाहर से इन सबको परिवृत्त - Superimpose कर रहा प्रचंड आदेश सामने की एक उपत्यका में से आ रहा था; "विरम विरम संगान्, मुञ्च मुञ्च प्रपंचम्, विसृज विसृज मोहम्, विद्धि विद्धि स्वतत्त्वम्, कलय कलय वृत्तम्, पश्य पश्य स्वरूपम्, भज विगत विकारं स्वात्मनात्मानमेव..... !" और सामने फैली गिरिकंदराएं इन पंक्तियों को जैसे दोहरा रहीं थीं - "विद्धि विद्धि स्वतत्त्वम्..... विद्धि विद्धि स्वतत्त्वम् पश्य पश्य स्वरूपम् ..... पश्य पश्य स्वरूपम्" "स्वतत्त्व को - स्वयं के तत्त्व को पहचानो" "स्वरूप को-अपने परम आत्म-रूप को देखो !" और तभी वीतराग-वाणी, निग्रंथ प्रवचन को प्रमाणित करती श्रीमद् की वाणी गूंज उठी : "जिसने आत्मा को जाना, उसने सब को जाना ।" "जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ ...... ।" (72)
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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