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________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा . इस गूंज का प्रतिघोष आस-पास की कंदराओं में सुनाई देता है । चांदनी एवं नीरव शांति के आवरण तले छिपी इस गिरिसृष्टि का दिव्य-सृष्टि में रूपांतरण हो जाता है; और वह स्वर्ग से भी सुन्दर, समुन्नत लगने लगती है । स्वर्ग की भोगभूमि में भी इस योगभूमि-सा परम, विशुद्ध आनंद दुर्लभ है, तभी तो देवतागण की नज़र भी यहीं होती है। उन्हें आकर्षित करनेवाले ये साधक-भक्त देहभान तक भूलकर भक्ति में लीन हैं। सबसे निराली हैं पवित्र ओजस से शोभायमान, पराभक्ति की मस्ती में झूमतीं, अघेड़ वय की ये सीधी-सादी, भोलीभाली माताजी । उनकी अखंड मस्ती देखने, उनका स्निग्ध अंतर-गान सुनने देवगण भी नीचे उतर आते हैं... खूबी तो यह है कि उन्हें इसका पता या इसकी परवाह भी नहीं । देवतागण भले ही अदृश्य हों, परंतु उनकी उपस्थिति का आभास सभी को होता है, माताजी की भक्ति से आनंदित होते, अपने को धन्य मानते, ये देवतागण उन पर ढेर सारा सुगंधित 'वासक्षेप डालते हैं । उस पीले, अपार्थिव द्रव्य को वहां उपस्थित हर कोई देख सकता है, सूंघ सकता है... नहीं, यह कोई अतिशयोक्तिपूर्ण परिकथा की 'कल्पना' नहीं है, अनुभव की जानेवली 'हकीकत' है। आप इसे चमत्कार मानें तो यह शुद्ध भक्ति का चमत्कार है। किसी ने कहा है : जगत में चमत्कारों की कमी नहीं है, कमी है उन्हें देखनेवाली 'आंखों' की । अगर आपके पास 'दृष्टि' नहीं है तो दोष किसका ? एक सूफ़ी फकीर भी कह गये हैं : "नूर उसका, जुहुर उसका, गर तुम न देखो तो कुसूर किसका ?" यह द्रष्टि विशुद्ध भक्ति से प्राप्त होती है, उसके द्वारा उस चैतन्य सत्ता की चमत्कृति का अनुभव हो पाता है । इसी के द्वारा आत्मा-परमात्मा के अंतर को पलभर में मिटाया जा सकता है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की 'गीतांजलि' का एक पद याद आता है, जिसका भाव है, “एक गीत... केवल एक गीत अंतर से ऐसा गाऊँ कि राजाओं का राजा भी उसे सुनने नीचे उतर आये ।" तब ऐसी पराभक्ति का आनंद उठाने देवतागण भी आ जायें तो क्या आश्चर्य ? माताजी की ऐसी भक्ति का, 'वासक्षेप' द्वारा वंदन, अनुमोदन, अभिनंदन करते हुए देवता विदा होते हैं। माताजी की इस उच्च साधना-भूमि का परिचय प्राप्त कर हम भी धन्य हुए । माताजी, भद्रमुनि के संसारपक्ष की चाची हैं । साधना हेतु वर्षों पूर्व ये यहाँ पधारीं । स्वामीश्री की सेवा-शुश्रुषा आहारदान का लाभ वे ही लेती हैं । विशेष रूप से आश्रम की बहनों एवं भक्तों के लिए छत्र-छाया बनी रहती हैं। इनके अलावा भी अन्य आबाल-वृद्ध, निकट से या दूर से आये हुए जैन-जैनेतरसब प्रकार के आश्रमवासी यहाँ रहते हैं; एक दूसरे से भिन्न; अंदर से और बाहर से निराले । मैंने उन सब को देखा- सृष्टि की विविधता एवं विधि की विचित्रता, कर्म की विशेषता एवं धर्म-मर्म की सार्थकता के प्रतीक-से वे साधक, जिनका एक ही गंतव्य था- आत्म-प्राप्ति । उन्हें देखकर मेरे मानस-पटल पर श्रीमद् का यह वाक्य उभर आता है: "जातिवेशनो भेद नहीं; कह्यो मार्ग जो होय ।" (65)
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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