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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
• आत्मज्ञान वहाँ मुनिदशा :
"आत्मज्ञानी श्रमण कहावे, बीजा तो द्रव्यलिंगी रे" (आनंदघनजी) "आत्मज्ञान त्यां मुनिपणुं, ते साचा गुरु होय" ( श्रीमद् राजचंद्रजी)
आत्मज्ञान-ज्योतिवाले ही साधु, सचमुच में साधु कहे जायेंगे, क्योंकि 'अप्पणाणेण मुणि होई' ऐसा आचारांग सूत्र में कहा है ।२० (पत्रांक-१४३) • धर्मध्यान में से शुक्लध्यान में प्रवेश :
"भूत-भावी की कल्पनाओं को त्याग कर केवल वर्तमान क्षण धर्मध्यान में ही व्यतीत हो तो शुक्लध्यान के प्रथमपाद में प्रवेश होकर आत्मसाक्षात्कार अवश्य होगा । अतः शेष सारी कल्पनाएँ हटा दें और आगेकूच करें ।"२९ ( पत्रांक-१६६) • ध्यानबल-स्वाध्याय बल :
"ध्यानबल के द्वारा समाधि स्थिति उत्पन्न होती है और वही 'संवर समाधिगत उपाधि' सम्यक्चारित्र है, जिसका फल मोक्ष है । स्वाध्याय बल के द्वारा ध्यान-बल बढ़ता है। अतएव अहोरात्र में ४ प्रहर स्वाध्याय और २ प्रहर ध्यान करने की आज्ञा उत्तराध्ययन में बतलाई है। जब जिस ध्यान में स्थिरता न रह सके तब उसे स्वाध्याय आवश्यक है। यदि ध्यान टिका रहता हो तो उसे स्वाध्याय उस काल में आवश्यक नहीं है । व्याख्यान काल में 'स्वलक्ष्य' से स्वाध्याय करता हूँ' एसा भाव स्थिर बनाकर कर्तव्य अदा करने से अभिमान नहीं आता है। श्रोता भले ही सुनें, हम तो अपने को ही उद्देश कर स्वाध्याय करते रहें ।"२२ (पत्रांक १८१) • जप और ध्यान का भेद :
"आपको पढ़ने (वाचन) के बजाय जप पर अधिक रुचि है वह हितरुप है । क्योंकि तत्त्वनिर्णय में दृढ़ता के लिये स्वाध्याय और तत्त्वानुभूति के लिये ध्यान ये साधन हैं । जप यह ध्यान के भेदरूप में है । अतः उल्लसित रोमांकुर सह उसमें निमग्न बनो ।" (जप श्वासोच्छवासपूर्वक)३ (पत्रांक १५४) सर्वार्थ हेतु उपादेय सिद्धचक्र मंत्र :
उसका सार 'सहजात्म स्वरूप परमगुरु मंत्र: “यह सोऽहं" अहंग्रह उपासना मंत्र है। उसमें परमात्मा का अवलंबन नहीं है। जिन्हें अनेक लब्धि-सिद्धियाँ प्रकट होने पर भी अहंभाव स्पर्श न कर सके वैसे उत्तम पात्रों के लिए ही यह मंत्र उपादेय है। शेष के लिए हेय है। जबकि नवपद मंत्र, सिद्धचक्र मंत्र ये भक्तिप्रधान मंत्र होकर वैसे दोष से साधक को बचा लेते हैं । अतएव सर्व साधकों के लिए
२० श्री सहजानंद पत्रावली: 143 २१ श्री सहजानंद पत्रावली : 166 २२ श्री सहजानंद पत्रावली : 181 २३ श्री सहजानंद पत्रावली : 154
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