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________________ यह भी उनका कैसा उदय और कर्नाटक की इस योगभूमि धन्यधरा का महाभाग्य कि कच्छगुजरात से, राजस्थान से, कैलास - हिमालय- अष्टापद से, सम्मेतशिखरजी-पावापुरी आदि से और फिर खारवेल राजाओं के खंडगिरि-उदयगिरि के उत्कल प्रदेश से जीवनभर विहार- विचरण करते करते अंत में अंतिम दस वर्ष कर्णाटक- हंपी में ही उनका शेष वास हुआ जो बहुत कुछ कहता है, बहुत कुछ अर्थ रखता है । इस प्रकार मुनिसुव्रत भगवान द्वारा क्षेत्र - स्पर्शित कर्णाटक की योगभूमि, कालांतर में अनेक महत्पुरुषों की पाद-स्पर्शना के पश्चात् युगप्रधान अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी द्वारा संस्पर्शित हुई और फिर युगप्रधान भद्रमुनि सहजानंदधनजी द्वारा । सहजानंदघनजी का इस धरती पर पधारना, अपना अनूठा प्रभाव फैलाना और शेष जीवन यहाँ पूर्ण करना एक अन्य दृष्टि से भी महत्त्व रखता है । श्वे. दिग. दोनों विभक्त जैन परम्पराओं को जोड़ने की दिशा में । इस विषय में उनके अनन्य शरणप्रदाता श्रीमद् राजचंद्रजी का एवं उनका स्वयं का " आश्चर्यकारक भेद पड़ गये हैं” इत्यादि व्यथापूर्ण चिंतन हैं । प्रस्तुत संदर्भ में उनका स्वयं का समन्वयपूर्ण जीवन, कवन, साधन एवं दोनों परंपराओं के पर्युषण + दशलक्षण पर्व एक साथ मनाने का नूतन प्रायोगिक उपक्रम बड़ा ही सूचक, सांकेतिक, आर्षदृष्टियुक्त दिशा दर्शक एवं महत्त्वपूर्ण है । युगप्रधान श्रुतकेवली भद्रबाहु रचित "श्री कल्पसूत्र " एवं " दशलक्षण धर्म" के उनके हम्पी में रिकार्ड किए गए अंतिम प्रवचन, दोनों धाराओं को जोड़ते हैं, जो भद्रबाहु काल के पश्चात् विभक्त हुई थी । यह तो सारा अद्भुत और अगम्य इतिहास है, जिस को खोज पाना हम अल्पज्ञों की क्या बिसात ? परंतु संकेत इतना अवश्य है इस भूमि के साथ योगीन्द्र युगप्रधान श्री सहजानंदधनजी के सुदीर्घ सम्बन्ध का - पूर्व सम्बन्ध का । इतिहासविद् गुरुभक्त श्री भँवरलाल नाहटा इस विषय में लिखते हैं : • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा • "वे भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के शिष्य भी बने । रामायण काल की अपनी उस पूर्व साधनाभूमि किष्किन्धा - हंपी तीर्थ में जाकर उसी का तीर्थोद्धार किया । " (श्री सहजानन्दधन पत्रावली : प्रस्तावना पृ. छ) वास्तव में आत्मखोज करने हेतु भगवान महावीर जो प्रश्न- ऊहापोह अपने शिष्यों को प्रदान करते हैं कि "मैं कहाँ से आया ? पूर्व से, उत्तर से, पश्चिम से, दक्षिण से, ऊर्ध्वदिशा से, अधोदिशा से ?" इत्यादि (सन्दर्भः उत्तराध्ययन सूत्र ) और श्रीमद् राजचंद्रजी भी जब उसी प्रश्न-वार्ता को दोहराते हैं कि - "मैं कोन हूँ ? आया कहाँ से ? क्या स्वरुप है मेरा सही ?" "हुं कोण छं ? क्यांथी थयो ? शुं स्वरुप छे मारुं ?" तो इस खोज का अर्थ भौतिक भी है, आत्मिक भी । स्थूल भी है, सूक्ष्म भी । स्थूल दैहिक पूर्वजन्मों की श्रृंखला की दृष्टि से, सूक्ष्म आत्मिक रुप से आत्मा की अनादि अनंत आत्मा की अजन्मा अवस्था की दृष्टि से, क्योंकि महान अपराजेय जैन दर्शन की यह सत्य अवधारणा है और वह वास्तविक सही है कि - " आत्मा की यात्रा अनादि है...... ' ॐ (13) -
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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