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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा .
दोनों धाराओं आम्नायों-दिगम्बर एवं श्वेतांबर को प्रभावित किये रखा । जहाँ श्वेतांबर आम्नाय में उनका प्रणीत "श्री कल्पसूत्र" ग्रंथ सर्वोपरि और सर्वपूज्य - सर्व शिरोधार्य बना रहा, वहाँ दिगम्बर आम्नाय में भी उनके "भद्रबाह संहिता" जैसे कई प्राप्त-अप्राप्त और लप्त ग्रंथ. कर्नाटक और दक्षिण भारत में उनका सर्वोच्च स्थान एवं प्रदान सिद्ध करते रहे हैं। उनके युगप्रभाव से एक ओर तो जैन साहित्य-सृजन विशालरुप से तमिलनाडु, केरल आदि कर्णाटकेतर प्रांतों-प्रदेशों में हुआ, जो कि भद्रबाहु के साथ के सैंकडों-हज़ारों निर्गंथ जैन मुनियों के उन प्रदेशों में विहार के कारण बन पाया । इस कर्णाटकेतर भाषाओं का जैन साहित्य आज जितना उपलब्ध है, उससे कई गुना अनुपलब्ध है। तमिलनाडु आदि प्रदेशो में जैन-द्वेषी अजैन आचार्यों के राज्य एवं समाज के प्रभाव से न केवल ग्रंथसृजक महामुनियों को मरवाया गया, दीवारों में जिंदा गाड़ा गया और जीवित जलाया गया, परन्तु उनकी अमूल्य-निधि-सा कालजयी जैन साहित्य भी जला दिया गया ! धर्मांधता का ऐसा क्रूर एवं महाकलंक कालिमाभरा उदाहरण सभ्य सुसंस्कृत भारतीय समाज के इतिहास में कहीं मिलेगा?
ऐसे महान ग्रंथ और महान जैन सृजक मुनि-आचार्य भले ही भस्मीभूत कर दिये गये हों, परंतु महाप्राणध्यानी भद्रबाहु की उनपर छायी रही महाप्रभा-ऋतंभरा प्रज्ञा की छाया को भस्मीभूत नहीं कर पाये वे जैनद्वेषी दल । दक्षिणापथ की कर्नाटक की अनेक गह्वरगुफाओं और गिरिकंदराओं में उनके आंदोलन आज भी विद्यमान हैं । ये गिरिगुफाएँ और शहादतभरी दीवारें, भद्रबाहु की समाधिमरण-घूसरित चंद्रगिरिपर्वत गुफा की भाँति आज भी बहुत कुछ कह रही हैं । वे बुलावा दे रही हैं संशोधकों को, उन गुफाओं में गूंज रहे आंदोलनों को पकड़ने और पाषाणों के बीच दबे पड़े कई लुप्त-विलुप्त ग्रंथों को खोज निकालने, जो कि महाध्यानी मुनियों की गहन आत्मानुभूतियों की सक्षम अभिव्यक्ति में लिखे गये थे।
भद्रबाहु के परवर्ती सृजकों का ग्रंथसृजन प्रथम देख लेना इस महत् खोजकार्य पूर्व कर लेना उपयोगी होगा । अपूर्व ऐसी आत्मानुभूतियों की सक्षम अभिव्यक्तियों में लिखा गया यह आज अनुपलब्ध साहित्य खोज निकालने कौन महाप्राण आत्मा प्रकट होगी? कर्णाटक की कंदराएँ उनकी प्रतीक्षा कर रहीं हैं। आचार्य भद्रबाहु की भूमिका और प्रभाव दक्षिण में : कर्णाटक में :
"Bhadrabahu and Silabhadra were contemporaries in the sixth generation after Sudharman had attained liberation.
"The migration of Bhadrabahu along with a body of 12000 monks to the South sometime between 296 or 298 B.C., is a landmark in the history of Jainism. The first inscription of 600 A.D. at Sravanabelagola in Karnataka refers to this event and the relevent part may be quoted here. Now indeed after the Sun, Mahavira who had risen to elevate the whole world and who had shone with a
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