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________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा • "जैन-धर्म का हिन्दू-धर्म पर क्या प्रभाव पड़ा, इसका उत्तर अगर हम एक शब्द में देना चाहें तो वह शब्द 'अहिंसा' है और यह अहिंसा शारीरिक ही नहीं, बौद्धिक भी रही है। "हिन्दु धर्म की जो वैष्णव-शाखा है, उसने जैन-धर्म के मूल तत्त्वों को अपने भीतर भलीभाँति पचा लिया है तथा वैष्णव और जैन में भेद करना आसान काम नहीं है। आधुनिक काल में महात्मा गांधी हिन्दुत्व के वैष्णव-भाव के सबसे बड़े प्रतिनिधि हुए, लेकिन उनमें प्रतिनिधि-जैन के सभी लक्षण मौजद थे । अनशन और उपवास पर प्रेम, अहिंसा पर प्रगाढ़ भक्ति, कदम-कदम पर भोग की सामग्रियों से बचने का भाव और उनका समझौतावादी दृष्टिकोण (स्याद्वाद), ये सबके-सब जैन-धर्म की ही शिक्षाएँ हैं। ___ "दक्षिण में जो जैन-धर्म का काफी प्रचार हुआ उससे भारत की एकता में भी और वृद्धि हुई । जैन मुनियों और जैन साहित्य के साथ संस्कृत के बहुत से शब्द दक्षिण पहुँचे और वे मलयालम, तमिल, तेलुगु और कन्नड भाषाओं में मिल गये । जैनों ने दक्षिण में बहुत-सी पाठशालाएँ भी खोली थीं । आज भी वहाँ बच्चों को अक्षरारंभ कराते समय 'ॐ नमः सिद्धम्' यह पहला वाक्य पढ़ाया जाता है, जो जैनों के नमस्कार का वाक्य है । खोज करने पर, शायद, यह बात मालूम हो सकती है कि वैष्णव-धर्म के विकास में जैन-मत का काफी हाथ था । गुजरात की जनता पर जैन-शिक्षा (अहिंसा और सादगी) का आज भी अच्छा प्रभाव है तथा यह भी कोई आकस्मिक बात नहीं है कि अहिंसा, उपवास और सरलता के इतने प्रबल समर्थक गांधीजी गुजरात में ही जन्मे ।"१ गुजरात के जैन दार्शनिक पद्मभूषण-प्रज्ञाचक्षु डा.पं. सुखलालजी इस अहिंसा-प्रभाव की चर्चा "जैन-संस्कृति का हृदय" शीर्षक अपने लेख में करते हुए लिखते हैं कि - __ "लोकमान्य तिलक ने ठीक ही कहा था कि गुजरात आदि प्रांतों में जो प्राणीरक्षा ओर निर्मास भोजन का आग्रह है वह जैन-परंपरा का ही प्रभाव है।"२ ।। तो गुजरात आदि प्रान्तों पर अहिंसा के जैन धर्म के प्रभाव में (२२वें) जैन तीर्थंकर नेमिनाथ के विराट प्रभाव के उपरान्त कर्णाटक से गये हुए ११वीं शती के चालुक्य वंश के महाराजा सिद्धराज और कुमारपाल आदि द्वारा किये गये व्यापक प्रचार का प्रभाव भी कारणभूत है। इस प्रकार कर्णाटक और समग्र दक्षिण पर जो अहिंसा और जैनधर्म का प्रभाव छाया रहा उसका विशद समापन करते हए पूर्वोक्त श्री रामधारीसिंह "दिनकर" आगे लिखते हैं कि "इस तरह से विचार करने पर यह अनुमान आसानी से निकल आता है कि प्राचीन काल में जैन मत का प्रधान गढ़ दक्षिण भारत ही रहा होगा। ईसवी सन के आरंभ में तमिल साहित्य का जो व्यापक विकास हुआ, उसके पीछे जैन मुनियों का भी हाथ था, ऐसा इतिहासकारों का विचार है। तमिल ग्रंथ 'कुरल' के पाँच-छह भाग जैनों के रचे हुए हैं, यह बात कई विद्वान स्वीकार करते हैं । इस प्रकार, कन्नड़ का भी आरम्भिक साहित्य जैनों का रचा हुआ है। १. "संस्कृति के चार अध्याय" (पृ. १२३-१२७) २. "दर्शन और चिन्तन" (पृ. १४३)
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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