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Dt. 19-07-2018 - 2
मे
कीर्ति-स्मृति
जाना था। इस के पूर्व एक योग बन गया। पूना में अपनी मेट्रिक्युलेशन परीक्षा देकर विनोबा के अनुज संत बालकोबाजी भावे के सान्निध्य में निसर्गोपचार आश्रम, मुलीकांचन में पर्याप्त वास करने का और अपनी परिश्रम प्रतिभा दर्शाने का उसे अनायास ही सौभाग्य मिल गया। बाबा विनोवा के अहिंसादर्शन एवं सेवा सर्वोदय- साधना की उसकी यहाँ भूमिका बन गई। इसी बीच अहिंसक क्रान्तिदूत जयप्रकाशजी के भी कार्यों और विचारों ने इस युवान के क्रान्तिशील दिलोदिमाग का कब्ज़ा ले लिया।
आगे चलकर उरलीकांचन से उसको, परिवार के दबाव-वश अनिच्छा फिर भी, मद्रास जाना पड़ा । परंतु थोड़े-से फिर भी अति कष्टप्रद, कसौटीपूर्ण मद्रास-वास से, अपने जीवन-संकल्प पूर्वक, कलकत्ता जाकर अपने क्रान्तिकार्य का श्रीगणेश कर देने का नियति-योग बन गया । विनोबाजी से मिलने जाने का तो इच्छा होते हुए भी स्थगित हो गया, परंतु तब जयप्रकाशजी की ही, अपने लक्ष्य में हड़त बती, "फैक्ट्री दान' की परिकल्पना योजना उसने एक ओर से, छोटे-से पैमाने पर भी, कलकत्ता में कार्यान्वित कर दी तो दूसरी ओर से अपने सहभागी-भागीदार हिस्सेदार बनाये. - हुए उन गरीब मज़दूरों को अहिंसक, शाकाहारी, निर्व्यसनी, सुशील, समर्पित "क्रान्ति सैनिक" बनाने की एक निराली जीवन परिवर्तक प्रक्रिया भी उसने खड़ी कर दी बड़ी रोमांचक, रोंगटे खड़े कर देनेवाली, रोमहर्षक और प्रेरक दास्तान है यह सारी ।
परंतु यह अनूठी दास्तान इन पन्नों पर आगे बढ़े उसके पूर्व यहाँ इस उदीयमान क्रान्तिकारी के ऐसे प्रतापी, प्रबल पुरुषार्थी क्रान्तदर्शी जीवन का युवावस्था में ही जो असमय, करण अंजामकरणांत होने जा रहा था और जो करुणतम होते हुए भी अन्य अनेकों का प्रेरणा-पुंज बना था उसका, यहाँ आरंभ किया हुआ प्रसंग चित्रण संपन्न कर लेंगे ।
उपर्युक्त गंभीर फिर भी जीवन से एक महाप्रस्थान के लिये शुभ सांकेतिक और पवित्र ऐसे "नमस्कार मंत्र घोष" (कि जिसकी इस क्रान्तिकार ने कलकत्ता में ९ नव दिन तक उपवासपूर्वक पूर्व - साधना की थी) के अनवरत अनुगुंजित प्रवाह के बीच से तब अद्भुत घटना घटी... उस गुरुवार के ज्ञानपंचमी के पावनदिन पूर्णातिथि का मध्याह्न व्यतीत हो गया... और इस क्रान्तिकारी करुणात्मा की श्वासगति की धड़कन ठीक २-२५ बजे रुक गई.... ! क्रान्ति-करुणा की ज्योति महाकरुणा में मिल जाने ऊपर उठ गई !!
तब वातावरण और उसके अंतःकरण में अनुगुंजित हो रहा था नवकार महामंत्र का घोष, उसकी छाती पर था उसका प्रिय एक लघु धर्मग्रंथ, माँ की गोद में था उसका मस्तक और उसके अस्तित्व की, आत्मा की, गहराई में थी अहिंसा के पालन के साथ महाप्रस्थान की एक परितृप्ति..... !!!
देह की इस बीमारी के बीच भी उसने अपनी इस अहिंसा की करुणा दया की लौ सतत, अक्षुण्ण जगाये रखी थी और अभी दो दिन पूर्व ही उसने अपने पूज्य अग्रज से यह वचन ले रखा था कि
"आप हाथ में पानी लेकर प्रतिज्ञा कीजिये कि चाहे कुछ भी हो जाये, मेरे इस शरीर में हिंसक औषधि की एक बूंद भी नहीं जायेगी। आप यह नहीं जाने देंगे... मेरे हाथों पाप नहीं करवाएंगे ।"
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