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________________ D. 10.01.2018. . .कीर्ति स्मति . परिशिष्ट-B क्रान्तिवीर कीर्ति की अधूरी साधना-सिध्धि का दर्शक-परिचायक अभूतपूर्व जिनशासनदेवता का प्रत्यक्षीकरण प्रसंग (दैवी वार्तालाप में स्वयं के एवं परिवारजनों के कई अद्भूत निजी रहस्यों-सत्यों का उद्घाटन) - हैदराबाद : २३-१०-१९५९ . सं. २०१५ के अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की छठ,शुक्रवार दि. २३ अक्तूबर १९५९ की संध्या.... हैद्राबाद (आन्ध्र) के उस्मानिया अस्पताल के स्पेश्यल वोर्ड का अलग कमरा... | पलंग पर शांत में अवस्था में सोया हुआ कीर्ति, सामने प्रतिक्रमणवत् ध्यान में बैठी हुईं माताजी और पलंग के निकट कुर्सी पर बैठा हुआ मैं । सामने वाली खिड़की में से दिख रहे हैं संध्या के फैलते-बिखरते रंग, छाने लगा है अन्धकार, मन्द पड़ने लगा है पंछियों का कलरव और सब कुछ स्तब्ध होता जा रहा है। "प्रतापभाई - 'प्रेमळ ज्योति' भजन गाइये ना!" अचानक कीर्ति बोल उठा और मेरे आर्द्र हृदय से और व्यथित कंठ में से 'प्रेमळ ज्योति', 'अपूर्व अवसर' और एक दो अन्य भजन निकलने लगे... जिसे सुनते सुनते कीर्ति की आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी और उसी अवस्था में वह निद्राधीन हो गया, लेकिन उस बात की ओर मेरा ध्यान ही न था । कुछ क्षणों के बाद दर्दभरी वाणी में वह कुछ बोलने लगा "मैं गिरनार जाऊँगा.... भरतवन और शेषावन जा कर साधना करूँगा..." इन शब्दों को सुनकर मुझे और माँजी को ऐसा लगा कि कीर्ति स्वप्न में बड़बड़ा रहा होगा ! परन्तु कुछ क्षणों के बाद तो उसके चेहरे पर वेदना एवं किसीको ललकारने के मिश्रित भाव दिखाई दिये... मानों किसी के साथ वह झगड़ना चाहता हो उस प्रकार उसके हाथ हवा में उछलने लगे और अत्यंत आवेश के साथ वह बोलने लगा.... "आपने मुझे उत्तर क्यों न दिया? मुझे इतना परेशान क्यों किया? मेरे काम में मुझे सफलता न मिली, मेरे पैसे गये, कठिनाइयाँ आईं और मैं इतना बीमार हो गया... । मैंने किसी धनप्राप्ति की लालसा से आपके नाम का जाप नहीं किया था, कलकत्ता में मेरे काम में मुझे सफलता प्राप्त हो इस हेतु से किया था...।" कुछ क्षणों के बाद मानों कीर्ति के मुख से ही कोई और ही बोल रहा था..."शांत हो जा, शांत हो जा, बेटे ! मैंने तुझे परेशान नहीं किया है ! तेरा २१ दिन का जाप पूर्ण हुआ नहीं था, लेकिन उस कारण से तूने परेशानियाँ नहीं उठाई हैं.... अपने अपने कर्मों के कारण सब...." इस प्रकार अलग स्वर में ही कोई उत्तर दे रहा हो ऐसा सुनाई दे रहा था । मुख कीर्ति का ही, आवाज़ किसी और की ! लेकिन वहाँ और तो कोई दिखाई नहीं दे रहा था। हाँ, वातावरण अत्यंत गंभीर हो गया था । माँजी और मैं आश्चर्य सहित उसे पूछने लगे: . "किसके साथ बात कर रहे हो कीर्ति ? सपना देख रहे हो क्या ?....." इत्यादि । (38)
SR No.032327
Book TitleKarunatma Krantikar Kirti Kumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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