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________________ Dt. 19-07-2018 35 कीर्ति स्मृति • कीर्ति ने उस प्रभात को वहाँ से पायें हुए अपने डाक-पत्रों में दो खास पत्र प्राप्त किये - एक अपने बड़े बन्धु चंदुभाई का बेंगलौर से और दूसरा मेरा हैदराबाद- आंध्र से । अति ही संवेदनशील, स्नेहपूर्ण और उदार दिल चंदुभाई कीर्ति के लिये सदा ही मुझ से भी अधिक चिंतित रहते थे और हमारी पू. माँ की चिंता और आँसूभरी विरह व्यथा व्यक्त करते रहते थे। इस बार उन्होंने कीर्ति को भरपूर प्रेमपूर्वक पत्र में लिखा था : "मुझे प्रताप के द्वारा यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई कि तुम्हारा छोटा फैक्ट्री युनिट अच्छा कार्य कर रहा है और खासकर नैतिक, नीतिमय स्वरूप में। तुम्हारे भीतर अथाह कार्यशक्ति, सामर्थ्य और उठाये हुए किसी भी कार्य को संपन्न करने की इच्छाशक्ति (will power) है। परंतु तुम ऐसा कार्य यहाँ बेंगलौर, हैद्राबाद या शारदाग्राम में क्यों नहीं आरम्भ करते ? इससे तुम हमारे निकट भी रह सकोगे और पूज्य माजी की चिंता भी दूर होगी। हम सभी तुम्हें अभी जो कुछ थोड़ी सी सहायता यहाँ से कर रहे हैं उससे अधिक कर पायेंगे । ".... विशेष में कलकत्ता हड़तालों और कॉम्युनिस्टों एवं कोमवादियों के बारबार हो रहे उपद्रवों का 'तूफानी - शहर' है.... इसलिये तुम्हारे और सभी के हित के लिये देर से या जल्दी से मेरे इस सुझाव पर अवश्य विचार करना । माँ तुम्हारे लिये हृदय के आशीर्वाद भिजवाती है। अपनी फुर्सत् पर उत्तर लिखना और तुम्हें किसी भी प्रकार की सहायता चाहिये तो संकोच मत करना । प्रेमभरे चंदुभाई के आशीष ।" मेरा पत्र भी कीर्ति की नई प्रवृत्ति की अनुमोदना करता था। कीर्ति में माँ के प्रति अपार भक्ति एवं हम सभी बंधुओं के प्रति पूज्यभाव था । "प्रेमल ज्योति" के, 'हे प्रभु !' के एवं "अपूर्व अवसर " के प्रार्थना- पद वह अपनी प्रवृत्तियों के बीच से भी सदा स्मृति में रखता था। जब जब वह हमारे पत्र पाता था तब तब वह बड़ा भावुक हो उठता था, परंतु उसके दृढ़ निर्धार, अंतर्ग्रस्तता अंर्तर्व्यस्तता और भूगर्भ प्रवृत्ति आदि सब भिन्न थे। हृदय से चाहते हुए भी वह इन से मुक्त नहीं हो सकता था संकल्पबद्धता उसकी विशेष प्रकृति बन चुकी थी। हम सब भी उसकी उस समय की इन परिस्थितियों, प्रवृत्तियों एवं अंतस्थितियों से तब जानकार नहीं थे । इस लिये कीर्तिने अपनी सारी विनम्रता एवं पूज्यभावपूर्वक हम दोनों बंधुओं को अलग-अलग पत्र लिखकर माँ और चंदुभाई की इच्छाओं को पूर्ण करने की भावना तो दर्शाई, परंतु साथ साथ संक्षेप में यह भी सूचित किया कि जल्दी वह संभव नहीं था, क्योंकि उसने कुछ लक्ष्य-निर्धार कलकत्ता में ही पूरे करने का संकल्प किया था । (क्रमशः ) (35)
SR No.032327
Book TitleKarunatma Krantikar Kirti Kumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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