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Dt. 19-07-2018.21
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...कोति-समति ।
मार्गदर्शन एवं सहाय करते रहने का भी मेरा आशय था । शांतिनिकेतन के मेरे इस चिर-अभीप्सित | निवासकाल के दौरान विविध विद्याध्ययनों एवं गुरुदेव के निकटतम अंतेवासियों के सत्-सान्निध्यों
का आनंद-लाभ मुझे तरुओं की छाया के विद्याभ्यास एवं खुले पैरों से चलने में पृथ्वी-स्पर्श-प्राप्ति आदि अन्य लाभों के उपरान्त मिल रहा था जिस आकाश के नीचे एवं जिस धरती पर विहरते हुए गुरुदेव ने अपनी चिरंतन कविताएँ ओवं अन्य कृतियाँ सृजित की थीं ! गुरुदेव के उक्त दिग्गज अंतेवासियों में से कुछ थे आचार्य क्षितिमोहन सेन, निताई विनोद गोस्वामी, शांतिदेव घोष आदि एवं हिन्दी विद्वान् प्राध्यापक डो/ रामसिंह तोमर, डो. शिवनाथ, डो. कनिका दीदी, इत्यादि, जिन सभी की सन्निधि में उन्मुक्त आकाश और वृक्षों के तले बैठकर एम.ए. का अनुस्नातक अभ्यास भी बड़ा धन्य हो गया था । विशेष में पू. मल्लिकजी के दूर से आते रहते पत्र उनके भूतकाल के गुरुदेवनिश्रा के शांति-निकेतन-वास के कई चिरस्मरणीय संस्मरणों से मेरे हृदय को अधिक आनंदित एवं समृद्ध बना रहे थे।ये सारे आनंदानुभव में छुट्टियों के दिन बोलपुर से कलकत्ता जा जाकर जिज्ञासापूर्ण अनुज कीर्ति एवं सहृदयी मनुभाई के साथ चिंतन कर लौट आता था और उन्हें भी कभी गुरुदेव की इस साधनाभूमि से प्रेरणा पाने शांतिनिकेतन जबरन खींच ले आता था ।
ये सारे स्वर्णसम आनंदानुभव एवं ज्ञानार्जन के अनुभव मुझे सतत समृद्ध कर रहे थे और कीर्ति को भी प्रेरणा एवं अपने मिशनकार्य में बहुत कुछ नूतन उत्साह प्रदान कर रहे थे । हम दोनों के आनंद का पार नहीं था। परंतु इसी बीच नियति को कुछ और करना था। यहाँ एक अकल्पित-अप्रत्याशित समस्या खड़ी हुई। विश्वभारती में शाकाहारी भोजनालय होते हुए भी साथ-ही-साथ चल रहे मांसाहारी भोजनालय का अस्तित्व और इस दुर्गंध में बैठकर वहाँ के अशुद्ध परमाणुओं के बीच अपना भोजन नित्य करना मुझसे अधिक सहन नहीं हुआ। मेरे प्रयत्नों के बावजूद वहाँ कोई फर्क नहीं पड़ा । मेरी व्यथा मैंने डो. शिवनाथ एवं पू. क्षिति बाबु जैसे परम हितैषी गुरुजनों के पास व्यक्त की, जिनकी सदा सहानुभूति मिलती रही, परंतु किसी परिवर्तन की सम्भावना से रहित ! आखिर मुझे अनिच्छा से, बीच में ही शांतिनिकेतन छोड़ने का दुःखद निर्णय करना पड़ा, जिसे सुन संवेदनाशील क्षितिबाबु के नेत्रो में आँसू भर आये और बोले : "गुरुदेव होते तो आपको यहाँ से जाने नहीं देते, आपको रसगुल्ले खिलाते, और कोई व्यवस्था विकल्प कर देते, उनका प्रेम तो छात्रों और बच्चों के लिये निराला ही था... पर अब हम क्या करें ? हम विवश हो गये हैं इस पवित्र विद्यास्थान विश्वभारती के सरकारी केन्द्रीय रूप में परिवर्तित हो जाने से....! इसीसे तो यहाँ मांसाहारी भोजनालय का दूषण प्रविष्ट हो गया है !" और यह कहते कहते वे अधिक रो पड़े ! उनकी वेदना को लेकर मेरी अंतर्व्यथा के साथ मुझे वहाँ से चल देना पड़ा-पू. मल्लिकजी को भी सूचना देकर । पू. पंडितजी को भी।
कलकत्ता आया तो कीर्ति और मनुभाई को भी एक धक्का-सा लगा और मैं भी अधिक व्यथित हुआ । परंतु किसी तरह मुझे अपना संकल्पित M.A. का अनुस्नातक अभ्यास पूर्ण करना ही था । दिव्यानुग्रह से, सद्भाग्य से मुझे, विलम्ब होते हुए भी हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय के M.A. हिन्दी साहित्य में प्रवेश मिल गया, जहाँ भी डो. रामनिरंजन पांडेय जैसे ऋषिवत् प्राध्यापक और उधर संगीतगुरु पूज्य नादानंदजी के सान्निध्य में अपना साहित्य-संगीत अध्ययन चालु रखने का योगसंयोग प्राप्त हो गया । जब कि कलकत्ता निकट के शांतिनिकेतन को छोड़ देने का और कीर्ति से