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Dt. 19-07-2018-18
. कीति-स्मृति..
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सभी साथियों को स्वेच्छापूर्वक जोड़ते हुए कीर्ति भी सभी के साथ "समानतापूर्वक" जीने लगा -खान-पान, रहन सहन, पहनावा : सभी बातों में । वह यहाँ तक कि एक बार जब मैंने माँ और अग्रज चंदुभाई के अनुरोध से उसे कुछ अच्छे कपड़े-शर्ट, सुट आदि हैद्राबाद से भिजवाये तब उसने स्वयं उनका उपयोग किये बिना अपने सहयोगी साथियों में बाँट दिये । उन वस्त्रों में से एक कोट-पतलून-उसकी स्मृति के रूप में मैंने अब तक सम्हालकर रखा है। उसके व्यवहार खानपानादि उपर्युक्त सात व्यसन रहित तो थे ही, परंतु उसका ऐसा शाकाहार भी इतना सादा और भारत के दरिद्रोंका-सा था कि एक बार जब मैंने उसकी भावी में कमबेश आई हुई विफलता के सन्दर्भ में बातचीत की थी तब उसने मुझे कुछ व्यथावश कहा था
"प्रतापभाई ! कलकत्ता आने के बाद मैं अपने कार्यमिशन में समर्पित भाव से जुटा हुआ रहा हूँ। मैंने न कभी एक रसगुल्ला खाया है, न कोई सिनेमा देखा है, न जीवन के किसी मौज-शौक को अपनाया है ! इतना होते हुए भी मेरा भाग्य क्यों मेरे विरुद्ध रहा है कि मैं मेरी मनचाही सफलता नहीं पा सका हूँ?"
तब मैंने उसे आश्वासन देकर धैर्य बंधाया था कि, "श्रद्धा रखो । कभी हमारे अदृष्ट पूर्व-कर्म अपना खेल अदा कर रहे हैं, परन्तु एक दिन तुम निश्चित रूप से पूर्ण प्रकाशमय साफल्य पानेवाले हो । अच्छा कठोर कार्य एवं पुरुषार्थयुक्त साधना कभी निष्फल नहीं जाते, जो कि तुमने अपनाया हुआ है - 'न हि कल्याणकृतं कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति !' (गीता)
__ कीर्ति को तब, प्रतिकूल परिस्थिति के बीच भी आशा जगी थी और अपनी श्रद्धा दृढ़ बनी थी । अस्तु ।
कीर्ति का "फैक्ट्री दान" का प्रयोग छोटे-से स्तर का होते हुए भी अच्छा सफल होने लगा था -कार्यक्षमता, गुणवत्तायुक्त उत्पादन और उच्च नैतिक-चारित्रिक मूल्यों के प्रसारण-सभी दृष्टियों से !
अपनी इस थोड़ी-सी फैक्ट्री-कार्य-व्यवस्था के साथ साथ अपने आयोजित क्रान्ति-कार्य के मिशन को साकार करने कीर्ति ने कलकत्ता में एक कठोर तप-जप पूर्वक नमस्कार महामंत्र-नवकार मंत्र की २१ दिनों के उपवास सहित साधना प्रारम्भ की। इसके विषय में उसने न केवल अपने धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन से, परंतु किसी जैन मुनि से प्रायोगिक मार्गदर्शन भी प्राप्त किया था ।
बड़ी कठोर प्रक्रिया थी यह, परंतु कीर्ति एक अति दृढ़ संकल्पमय इच्छाशक्तिपूर्ण व्यक्ति था। उसने यह उपवास शय्या में सोते सोते नहीं, स्वयं भी अपना परिश्रमभरा फैक्ट्रीकार्य करते करते प्रसन्नतापूर्वक प्रारम्भ किया और चालू रक्खा । प्रातःकाल की अमृतवेला में अपनी निर्धारित अनेक नमस्कार मंत्रों की मालाएँ वह पद्मासन में बैठकर, एकाग्रतापूर्वक गिनने लग जाता था- जल भी पिये बिना ! माला-जाप के बाद ही वह थोड़ा जल लेता था और फिर अपने फैक्ट्री कार्य में दिनभर लगा रहता था-न कहीं आराम, न कोई आहार ! फिर भी संकल्प और प्रसादपूर्ण चित्त-प्रसन्नता में कोई फर्क नहीं । इस प्रकार भक्तिपूर्वक की इस उपवास-आराधना के नव दिन बीत गये....
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