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परम बुद्धि कृष देहमां, स्थूल देह मति अल्प ; देह होय जो आत्मा, घटे न आम विकल्प. जड़ चेतननो भिन्न छ, केवल प्रगट स्वभाव ; अकपणुं पामे नहि, त्रणेकाल द्वयभाव. आत्मानी शंका करे, आत्मा पोते आप; शंकानो करनार ते अचरज अह अमाप.
शंका - शिष्य उवाच
आत्माना अस्तित्वना, आपे कह्या प्रकार; संभव तेनो थाय छे, अंतर कर्ये विचार बीजी शंका थाय त्यां, आत्मा नहि अविनाश ; देहयोगथी उपजे, देह वियोगे नाश. अथवा वस्तु क्षणिक छे, क्षणे क्षणे पलटाय ; ओ अनुभवथी पण नहीं आत्मा नित्य जणाय. ६१ ।
समाधान - सद्गुरू उवाच
देह मात्र संयोग छ, वली जड रूपी दृश्य ; चेतननां उत्पत्ति लय, कोना अनुभव वश्य?
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