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वर्तमान आ कालमां, मोक्षमार्ग बहु लोप; विचारवा आत्मार्थीने, भाख्यो अत्र अगोप्य. कोई क्रिया- जड थई रह्या, शुष्क ज्ञानमां कोई ; माने मारग मोक्षनो, करूणा उपजे जोई. बाह्य क्रियामां राचतां, अंतर्भेद न कांई; ज्ञानमार्ग निषेधतां, तेह क्रियाजड आंही. बंध मोक्ष छे कल्पना, भाखे वाणी मांही; वर्ते मोहावेशमां, शुष्क ज्ञानी ते आंही. वैराग्यादि सफल तो, जो सह- आत्मज्ञान; तेमज आत्मज्ञाननी, प्राप्तितणां निदान. त्याग-विराग न चित्तमां, थाय न तेने ज्ञान; अटके त्याग विरागमां, तो भूले निज भान. ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे, तहां समझवं तेह; त्यां त्यां ते ते आचरे, आत्मार्थी जन ओह. सेवे सद्गुरूचरणने त्यागी दई निजपक्ष; पामे ते परमार्थने, निजपदनो ले लक्ष. आत्मज्ञान समदर्शिता, विचरे उदय प्रयोग; अपूर्व वाणी परमश्रुत, सद्गुरू लक्षण योग्य. प्रत्यक्ष सद्गुरू सम नहीं, परोक्ष जिन उपकार; वो लक्ष थया विना, उगे न आत्मविचार
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