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अचल रूप आसक्ति नहि, नहि विरहनो ताप, कथा अलभ्य तुज प्रेमनी, नहि तेनो परिताप ।।७।। भक्ति मार्ग प्रवेश नहि, नहि भजन दृढ भान, समज नहि निजधर्मनी, नहि शुभ देशे स्थान ।।८।। कालदोष कलिथी थयो, नहि मर्यादा धर्म, तोय नहि व्याकुलता, जुओ प्रभु मुज कर्म ।।९।। सेवा ने प्रतिकूल जे, ते बंधन नथी त्याग, देहेंद्रिय माने नहि, करे बाह्य पर राग ।।१०।। तुज वियोग स्फुरतो नथी, वचन नयन यम नाही, नहि उदास अनभक्तथी, तेम गृहादिक माही।।११।। अहंभावथी रहित नहि, स्वधर्म संचय नाही, नथी निवृत्ति निर्मल पणे अन्य धर्मनी कांई।१२।। अम अनंत प्रकारथी, साधन रहित हुँय, नहीं अक सद्गुण पण, मुख बतावू शृंय? ॥१३॥ केवल करूणामूर्ति छो, दीनबंधु दीनानाथ, पापी परम अनाथ छु, ग्रहो प्रभुजी हाथ ।।१४।। अनंत कालथी आथडयो, विना भान भगवान सेव्या नहि गुरू संत ने, मूक्य नहि अभिमान।।१५।।